ISBN: 978-81-8361-819-9 मेरे बाद... © राहत इ(cid:10340)दौरी पहला सं(cid:4607)करण: 2016 पर् काशक राधाकृ (cid:10351)ण पर् काशन पर् ाइवेट िलिमटेड 7/31, अंसारी माग(cid:10002), दिरयागंज, नई िद(cid:10347)ली–110 002 शाखाए:ँ अशोक राजपथ, साइंस कॉलेज के सामने, पटना–800 006 पहली मंिजल, दरबारी िबि(cid:10347)डंग, महा(cid:10337)मा गांधी माग(cid:10002), इलाहाबाद–211 001 36 ए, शे(cid:10328)सिपयर सरणी, कोलकाता–700 017 वेबसाइट: www.radhakrishnaprakashan.com ई–मेल: [email protected] MERE BAAD... by Rahat Indori Transliterate by Anuradha Sharma इस पु(cid:10352)तक के सवा(cid:10002)िधकार सुरि(cid:10325)त ह(cid:9994)। पर् काशक की िलिखत अनुमित के िबना इसके िकसी भी अंश की, फोटोकॉपी एवं िरकॉिडंग(cid:10002) सिहत इले(cid:10328)ट्रॉिनक अथवा मशीनी, िकसी भी मा(cid:10339)यम से अथवा (cid:10326)ान के संगर् हण एवं पुनःपर् योग की पर् णाली (cid:10403)ारा, िकसी भी (cid:10486)प म(cid:9993), पुन(cid:10485)(cid:10337)पािदत अथवा संचािरत–पर् सािरत नही ंिकया जा सकता। भिू मका डॉ. राहत इ(cid:10340)दौरी की शायरी आसमान(cid:10528) की बुलि(cid:10340)दय(cid:10528) को छतू ी हुई ज़मीन की शायरी है अगर आपका मन शायरी म(cid:9993) अ(cid:10347)फ़ाज़ कै से झमू ते ह(cid:9994), ये देखने का हो; ज(cid:10356)बात ल(cid:10357)ज़(cid:10528) म(cid:9993) कै से बात करते ह(cid:9994), ये जानने का हो; िवचार को चारदीवारी से बाहर िनकालकर सब तक कै से पहुँचाया जाता है, ये समझने का हो; या िफर शायरी म(cid:9993) शायरी से मुह(cid:10343)बत कै से की जाती है, ये देखने का हो; िदल के ख़त पर द(cid:10352)तख़त कै से िकए जाते ह(cid:9994), ये हुनर सीखने का हो; सामा(cid:10340)य बात को िवशेष कै से बनाया जाता है, इस पर् ितभा से पिरिचत होने का हो; या िफर िवशेष और किठन से किठन बात को साधारण तरीके से कहने की कला सीखने का हो, तो ये सारी चीज(cid:9993) आपको एक ही (cid:10349)यि(cid:10328)त(cid:10337)व म(cid:9993) िमल जाएँगी और उस शि(cid:10329)सयत का नाम है: जनाब राहत इ(cid:10340)दौरी! िजसने भी उ(cid:10340)ह(cid:9993) मंच पर किवता सुनाते हुए देखा है, वह अ(cid:10332)छी तरह जानता है िक राहत भाई ल(cid:10357)ज़ को के वल बोलते ही नही ं ह(cid:9994), उसको िचितर् त भी कर देते ह(cid:9994)। कई बार ऐसा लगता है िक ये अज़ीम शायर ल(cid:10357)ज़(cid:10528) के जिरये प(cid:9993)िटंग कर रहा है। उनम(cid:9993) अपने भाव(cid:10528) और िवचार(cid:10528) के रंग भरकर सामने ला रहा है। राहत भाई की शायरी को हम के वल सुनते ही ह(cid:10528), ऐसा नही ं है, उनकी शायरी िदखाई भी देती है। वे जो कु छ कहना चाहते ह(cid:9994), उसे िचितर् त भी कर देते ह(cid:9994), इसिलए उनका क(cid:10338)य पद(cid:9991) के पीछे छुपे होने के बावज़दू साफ़ िदखाई देता है। यह िवरोधाभास सामा(cid:10340)य किव या शायर म(cid:9993) नही ं िमलता वरन ् उसम(cid:9993) ही िमलता है िजसे उपयु(cid:10328)त श(cid:10343)द(cid:10528) को इ(cid:10352)तेमाल करने की समझ हो और वह जो कहना चाहता है उसे दसू र(cid:10528) तक पहुँचाने की तड़प भी हो। राहत भाई ने भले ही एक (cid:10352)थान पर यह कहा है: मेरी ग़ज़ल को ग़ज़ल ही समझ तो अ(cid:239)छा है मेरी ग़ज़ल से कोई (cid:376)ख़ िनकालता (cid:234)यँू है लेिकन यह उनकी िवनमर् ता ही है। सच तो यह है िक यिद उनकी शायरी के भाव– प(cid:10325) अथात(cid:10002) िवषयव(cid:10352)तु की दृि(cid:10351)ट से िवचार िकया जाए तो हम(cid:9993) पता चलेगा िक उनका क(cid:10338)य अनेक िवषय(cid:10528) से जुड़ा है, जैसे—पर् ेम से, अ(cid:10339)या(cid:10337)म अथात(cid:10002) माफ़(cid:10002)त से, जीवन– यथाथ(cid:10002) से, जीवनानुभव(cid:10528) से, बदलते जीवन–म(cid:10347)ू य(cid:10528) से, नारी–िवमश (cid:10002) से, सामािजक िवसंगितय(cid:10528) से, िर(cid:10350)त(cid:10528) से, क़ाननू –(cid:10349)यव(cid:10352)था से, बाज़ारवाद से, धािम(cid:10002)क तथा अ(cid:10340)य पर् कार के आड(cid:10345)बर(cid:10528) से, मशीनीकरण से, पि(cid:10350)चमीकरण के अंधानुकरण से, देश की िसयासत और बेकारी जैसी आिथ(cid:10002)क सम(cid:10352)याओं तथा आिथ(cid:10002)क िवसंगितय(cid:10528) से भी। आशय यह है िक राहत भाई ने परू ी संवेदना और ईमानदारी के साथ इन बात(cid:10528) पर सहज और सरल भाषा म(cid:9993) कला(cid:10337)मक और सकारा(cid:10337)मक शायरी की है। उनके पर् तीक, उनके िब(cid:10345)ब, उनकी श(cid:10343)द– योजना, नई मुहावरेदारी, सटीक क(cid:10347)पनाशीलता तथा बात को सिू (cid:10328)तमय शैली म(cid:9993) कहने की अदा अदि् वतीय है। उनकी शायरी म(cid:9993) अगर एक ओर ग(cid:10345)भीरता रहती है तो दसू री ओर चुलबुलापन भी रहता है और यही कारण है िक उनकी शायरी शर् ोताओं और पाठक(cid:10528), दोन(cid:10528) को अपनी–अपनी तरह से आकिषत(cid:10002) करती है। उनकी शायरी सोच के आसमान की बुलि(cid:10340)दय(cid:10528) को छतू े हुए भी ज़मीन की शायरी है। वे कहते ह(cid:9994): झूठी बुल(cid:261)(cid:253)दय(cid:387) का धुआँ पार करके आ क़द नापना ह ै मेरा तो छत से उतर के आ राहत भाई जहाँ मुह(cid:10343)बत की बात करते ह(cid:9994), वही ं कही–ं कही ं अ(cid:10339)या(cid:10337)म और माफ़(cid:10002)त की बात भी अचानक ही हो जाती है। इस स(cid:10345)ब(cid:10340)ध म(cid:9993) उनका यह एक शेर बहुत ही पर् िस(cid:10397) है: उसक(cid:291) याद आई ह ै साँसो ज़रा आिह(cid:269)ता चलो, धड़कन(cid:387) से भी इबादत म(cid:219) ख़लल पड़ता है राहत भाई के इस शेर म(cid:9993) जो गहराई है, वह अचानक ही नही ं आई है। बक़ौल उनके ही: हमसे पूछो िक ग़ज़ल माँगती ह ै िकतना लह(cid:298) सब समझते ह (cid:222) ये धधं ा बड़े आराम का है राहत भाई एक ऐसे शायर ह(cid:9994) िज(cid:10340)ह(cid:10528)ने िज़(cid:10340)दगी की हक़ीक़त को, उसकी न(cid:10350)वरता को अ(cid:10332)छी तरह पहचाना है और उसी पहचान को शायरी के (cid:10486)प म(cid:9993) नए ढंग से पेश िकया है: कटी जाती ह (cid:222) साँस(cid:387) क(cid:291) पतगं (cid:219) हवा तलवार होती जा रही है यही नही,ं दुिनया के तजुबात(cid:10002) को भी उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने बड़े ही सु(cid:10340)दर ढंग से पर् (cid:10352)तुत िकया है और दुिनया के बारे म(cid:9993) यह कहा है: (cid:218)जसको दिुनया कहा जाता ह ै कोठे क(cid:291) तवाइफ़ है इशारा िकसको करती ह ै नज़ारा कौन करता है आज के समाज म(cid:9993) नारी की जो दशा है और उसके साथ जो ज़ु(cid:10347)म और बला(cid:10337)कार हो रहे ह(cid:9994), उन पर भी उनकी दृि(cid:10351)ट गई है और उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने यह कहा: िदखाई देता ह ै जो भेिड़ये के ह(cid:387)ठ(cid:387) पर वो लाल दधू हमारी सफ़े द गाय का है दसू री ओर उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने ऐसे समाज पर (cid:10349)यं(cid:10330)या(cid:10337)मक श(cid:10343)दावली म(cid:9993) यह भी कहा है: गाँव क(cid:291) बेटी क(cid:291) इ(cid:274)ज़त तो बचा लँू लेिकन मुझे मु(cid:218)खया न कह(cid:288) गाँव के बाहर कर दे इस समाज–(cid:10349)यव(cid:10352)था के कण(cid:10002)धार(cid:10528) के आड(cid:10345)बर की बात करते हुए वे यह भी कहते ह(cid:9994): सारी िफ़तरत तो नक़ाब(cid:387) म(cid:219) िछपा र(cid:234)खी थी (cid:218)सफ़(cid:225) तसवीर उजाल(cid:387) म(cid:219) लगा र(cid:234)खी थी िर(cid:10350)त(cid:10528) पर अपनी लेिखनी चलाते हुए राहत साहब संसार के सबसे ख़बू सरू त और नजदीक़ी िर(cid:10350)ते अथात(cid:10002) माँ के (cid:10349)यि(cid:10328)त(cid:10337)व की अक़ीदत को नमन करते हुए कहते ह(cid:9994): माँ के क़दम(cid:387) के िनशां ह (cid:222) िक दीये रौशन ह(cid:222) ग़ौर से देख यह(cid:288) पर कह(cid:288) ज(cid:356)त होगी राहत साहब ने हमारे देश की क़ाननू –(cid:10349)यव(cid:10352)था पर भी ख़बू कहा है। चोरी–डकै ती आज खुलेआम हो रही है। इस पर उनका ये शेर देख(cid:9993): जो माल तेरा था कल तक, वो अब पराये का है यही (cid:284)रवाज मेर े शहर क(cid:291) सराय का है आज वै(cid:10350)वीकरण के कारण जो भारत म(cid:9993) बाज़ारवाद आया है, उस पर िट(cid:10341)पणी करते हुए वे कहते ह(cid:9994): तू जो चाहे तो तेरा झूठ भी िबक सकता है शत(cid:225) इतनी ह ै िक सोने क(cid:291) तराज़ू रख ले आज का युग िव(cid:10326)ापन का युग है, इस बात को भी शायर ने अ(cid:10332)छी तरह समझा है और यह कहा है: िकसी को ज(cid:272)म िदये ह (cid:222) िकसी को फू ल िदये बुरी हो चाहे भली हो मगर ख़बर म(cid:219) रहो आज हमारे युवक गाँव से शहर(cid:10528) की तरफ़ और देश से िवदेश की ओर भाग रहे ह(cid:9994), इस पर भी राहत साहब का (cid:10339)यान गया है: नौजवा ँ बेट(cid:387) को शहर(cid:387) के तमाशे ले उड़े गाँव क(cid:291) झोली म(cid:219) कु छ मजबूर माँएँ रह गईं डॉ. राहत इ(cid:10340)दौरी ने िसयासत पर भी नज़र डाली है और उ(cid:10340)ह(cid:9993) इस स(cid:10340)दभ(cid:10002) म(cid:9993) जैसा लगा, वैसा ही िलखा: यहा ँ तो चार(cid:387) तरफ़ कोयले क(cid:291) खान(cid:219) ह(cid:222) बचा न पाएगा कपड़े सँभालता (cid:234)यँू है और उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने यह बात ऐसे ही नही ं िलख दी। उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने साफ़–साफ़ यह देखा: रहबर मन(cid:222) े समझ र(cid:234)खा था (cid:218)जनको राहत (cid:234)या ख़बर थी िक वही लूटने वाले ह(cid:387)गे अगर हमारे राजनेता ही ऐसे िनकल आएँ, िज(cid:10340)ह(cid:9993) हम चुनकर भेजते ह(cid:9994), वे अपनी मनमानी करते रह(cid:9993) तो किव का कत(cid:10002)(cid:10349)य हो जाता है िक वह इस (cid:10352)वर म(cid:9993) भी बात करे िजसम(cid:9993) राहत भाई करते ह(cid:9994)। वे कहते ह(cid:9994): इतं ज़ामात नए सर से सँभाले जाएँ (cid:218)जतने कमज़फ़(cid:225) ह (cid:222) महिफ़ल से िनकाले जाएँ राहत भाई ने सभी (cid:10325)ेतर् (cid:10528) के पर् दषू ण पर भी नज़र दौड़ाई है और इस पर् दषू ण को अलग–अलग शेर(cid:10528) म(cid:9993) रेखांिकत भी िकया है। सािह(cid:10337)य के मंच(cid:10528) के (cid:10325)ेतर् म(cid:9993) जो पर् दषू ण है, उस पर उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने अ(cid:10332)छा कटा(cid:10325) िकया है: अदब कहाँ का िक हर रात देखता ह(cid:298)ँ म(cid:222) मुशायर(cid:387) म(cid:219) तमाशे मदा(cid:284)रय(cid:387) वाले वे यह भी कहते ह(cid:9994): ग़ज़ल क(cid:291) क़(cid:312) पे आँसू बहा के लौट आया मुशायर(cid:387) म(cid:219) लतीफ़े सुना के लौट आया आज धािम(cid:10002)कता भी (cid:10352)व(cid:10332)छ नही ं रह पाई है। धम(cid:10002) की आड़ म(cid:9993) कु छ और फ़ायदे पर् ा(cid:10341)त करने का ल(cid:10325)य भी आज अ(cid:10332)छी तरह िदखाई देता है। ख़ास तौर से आज िसयासत म(cid:9993) धम(cid:10002) का खेल ख़बू चल रहा है। दंगे–फ़साद भी इसी की देन ह(cid:9994)। राहत जी इसी वजह से यह िलखते ह(cid:9994): देवताओ ं और ख़ुदाओं क(cid:291) लगाई आग ने देखते ही देखते ब(cid:269)ती को जगं ल कर िदया धािम(cid:10002)कता भी मतलब की रह गई है, इस पर िट(cid:10341)पणी करते हुए वे कहते ह(cid:9994): ख़ुदा से काम कोई आ पड़ा है बह(cid:297)त म(cid:261)(cid:269)जद के च(cid:234)कर लग रहे ह(cid:222) जहाँ तक कला–प(cid:10325) और िश(cid:10347)प का पर् (cid:10350)न है, राहत भाई की ग़ज़ल(cid:9993) परू ी पिरप(cid:10328)वता िलये हुए ह(cid:9994)। चाहे वह ग़ज़ल की बहर या छ(cid:10340)द की बात हो, चाहे अपनी बात को सटीक भाषा म(cid:9993) अिभ(cid:10349)य(cid:10328)त करने की, चाहे भाषा के मुहावरे की हो या स(cid:10328)ू तमयता की, चाहे पर् तीक िवधान की हो या िब(cid:10345)बा(cid:10337)मकता की, और िफर चाहे वह क(cid:10347)पनाशीलता की हो या यथाथ(cid:10002) की—छ(cid:10340)द की दृि(cid:10351)ट से िवचार कर(cid:9993) तो उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने सािलम और िमिशर् त, दोन(cid:10528) ही पर् कार की बहर(cid:10528) का इ(cid:10352)तेमाल िकया है। वैसे उ(cid:10340)ह(cid:9993) बहरे–हजज़ अिधक पस(cid:10340)द है िजसका पर् मुख (cid:10485)(cid:10328)न ‘मफाईलुन’ है। इसका एक उदाहरण देख(cid:9993): पुराने दाँव पर हर िदन नए आँस ू लगाता है वो अब भी इक फटे (cid:377)माल पर ख़ुशबू लगाता है राहत साहब ने अपनी ग़ज़ल(cid:10528) के िलए उस भाषा का चुनाव िकया है जो परू ी तरह बोलचाल की भाषा है। वह ठेठ उद(cid:10002) ूनही ं है। (cid:10328)य(cid:10528)िक वे कहते भी ह(cid:9994): हमने सीखी नह(cid:288) ह ै िक़(cid:269)मत से ऐसी उद(cid:225) ूजो फ़ारसी भी लगे वह ऐसी भाषा है जो सबकी समझ म(cid:9993) आ जाए, िफर चाहे उसम(cid:9993) बोल–चाल के िन(cid:10337)य पर् यु(cid:10328)त होने वाले अंगर् ेज़ी के ही श(cid:10343)द (cid:10328)य(cid:10528) न ह(cid:10528)। एक शेर म(cid:9993) उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने ‘कै ल(cid:9993)डर’ श(cid:10343)द का पर् योग बेिझझक कर िदया है। उदाहरण देख(cid:9993): बह(cid:297)त रगं ीन तबीयत ह (cid:222) प(cid:284)रदं े दर(cid:272)त(cid:387) पर कै ल(cid:219)डर लग रहे ह(cid:222) इसी पर् कार राहत भाई ने ऐसे श(cid:10343)द(cid:10528) का भी िनमा(cid:10002)ण िकया है जो के वल उ(cid:10340)ही ं के बनाए हुए से लगते ह(cid:9994) िक(cid:10340)तु अपना वा(cid:10352)तिवक अथ(cid:10002) भी देते ह(cid:9994)। जैसे—एक शेर के दसू रे िमसरे: ‘उड़निचय(cid:10528) से कोई िकतनी दरू जाएगा’ म(cid:9993) ‘उड़निचय(cid:10528)’ श(cid:10343)द, और ‘मेरे बारे म(cid:9993) ये सोचा–िवचारा कौन करता है’ म(cid:9993) ‘सोचा–िवचारा’ श(cid:10343)द। इसी के साथ–साथ उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने मुहावरेदार भाषा का पर् योग भी िकया है। जैसे—‘होश िठकाने आना’ (अब कही ं जाके मेरे होश िठकाने आए), ‘जीने के लाले पड़ना’, आिद। कु छ नए मुहावरे भी उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने (cid:10352)वयं गढ़े ह(cid:9994), जैसे–‘फटे (cid:10486)माल पर ख़ुशब ू लगाना’ (वो अब भी इक फटे (cid:10486)माल पर ख़ुशबू लगाता है), आिद। शायरी इशार(cid:10528) म(cid:9993) कही हुई बात है, और इसम(cid:9993) सबसे बड़ा उपयोग ‘पर् तीक(cid:10528)’ का होता है। राहत भाई को ऐसे पर् तीक(cid:10528) के पर् योग म(cid:9993) महारत हािसल है। उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने अलग– अलग (cid:10325)ेतर् (cid:10528) के पर् तीक(cid:10528) का पर् योग िकया है। पौरािणक पर् तीक(cid:10528) को यिद देख(cid:9993) तो उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने ‘ल(cid:10431)मण’, ‘गौतम’ आिद सकारा(cid:10337)मक पर् तीक(cid:10528) का पर् योग करके वह अथ(cid:10002) (cid:10339)विनत िकया है जो वह कहना चाहते ह(cid:9994)। इसी पर् कार ‘रा(cid:10325)स’ क्(cid:10486)रता का तथा ‘देवता’ अ(cid:10332)छाई का पर् तीक बनकर उनकी शायरी म(cid:9993) आया है। उदाहरण के िलए ये शेर देख(cid:9993): ये शहर वो ह ै जहाँ रा(cid:232)स भी रहते ह(cid:222) हर इक तराशे ह(cid:297)ए बुत को देवता न कहो इसी पर् कार ‘िब(cid:10332)छ’ू , ‘काग़ज़ का गुलाब’, भेिड़या, गाय, कबतू र, पेड़ आिद पर् तीक(cid:10528) का भी सटीक पर् योग िकया है। िकसी भी शायर को बड़ा शायर तब कहा जाता है जब उसके शेर िज(cid:10340)दगी के अनेक मोड़(cid:10528) पर याद आएँ और िज़(cid:10340)दगी को कोई नया अनुभव या नई िदशा भी द(cid:9993)। ये वे शेर होते ह(cid:9994) जो समय–समय पर उपयु(cid:10328)त (cid:10352)थान और व(cid:10353)त पर उ(cid:10397)तृ करने यो(cid:10330)य होते ह(cid:9994)। राहत भाई के इस ग़ज़ल संगर् ह म(cid:9993) भी अनेक ऐसे शेर ह(cid:9994) जो मन म(cid:9993) उतरते चले जाते ह(cid:9994) और कु छ सोचने को मजबरू करते ह(cid:9994) तथा िदशा–िनद(cid:9991)श भी करते ह(cid:9994)। ये शेर एक पर् कार से सिू (cid:10328)त– वा(cid:10328)य जैसे लगते ह(cid:9994)। राहत भाई के ऐसे शेर(cid:10528) की एक बड़ी सं(cid:10329)या है। िक(cid:10340)तु बानगी के तौर पर कु छ शेर ये ह(cid:9994): हर एक चेहर े को ज(cid:272)म(cid:387) का आईना न कहो ये िज़(cid:253)दगी तो ह ै रहमत इसे सज़ा न कहो मु(cid:269)कराहट क(cid:291) सलीब(cid:387) पे चढ़ा दो आँसू िज़(cid:253)दगी ऐसी गुज़ारो िक िमसाल(cid:387) म(cid:219) िमले टूट कर िबखरी ह(cid:297)ई तलवार के टुकड़े समेट और अपने हार जाने का सबब मालूम कर सफ़र क(cid:291) हद ह ै वहाँ तक िक कु छ िनशान रहे चले चलो िक जहा ँ तक ये आसमान रहे आशय यह है िक राहत भाई की शायरी िज़(cid:10340)दगी म(cid:9993) नया हौसला पैदा करने वाली और हारे–थके को नया उ(cid:10337)साह िदलाने वाली सकारा(cid:10337)मक तथा संवेदनशील शायरी है। वह पर् (cid:10337)येक कोण से साफ़–सुथरी और सािहि(cid:10337)यक मानदंड(cid:10528) पर खरी उतरने वाली उ(cid:10396)े(cid:10350)यपणू (cid:10002) शायरी है। यह (cid:10349)यि(cid:10328)तगत मनोभाव(cid:10528) से लेकर सामािजक सरोकार(cid:10528), देश–दशा और िव(cid:10350)व पर नज़र रखने वाली शायरी भी है। उ(cid:10340)ह(cid:10528)ने िवदेश(cid:10528) म(cid:9993) भी अपनी शायरी को चिच(cid:10002)त िकया है और देश–दुिनया के हालात भी देखे ह(cid:9994) इसिलए उनकी ग़ज़ल(cid:10528) म(cid:9993) सचाई और पर् ामािणकता है। लेिकन शत(cid:10002) यह है िक उनके इस शेर की बात को समझकर उसे माना भी जाए: काग़ज़(cid:387) क(cid:291) ख़ामोिशयाँ भी पढ़ एक इक हफ़(cid:225) को सदा भी मान उनके ‘मेरे बाद’ नामक इस संगर् ह को िकस पर् कार पढ़ा जाए, इसका तरीक़ा भी वे ख़ुद बता देते ह(cid:9994) और यही तरीक़ा ठीक भी है: अभी तो नाव िकनार े ह ै फ़ै सला न करो ज़रा बढ़ोगे तो गहराइया ँ भी आएँगी।