अरी, मैं तो नाम के रंग छकी प्रवचन-क्रम 1. चाहत खैंचच सरन ही राखत ..................................................................................................2 2. सत्संग सरोवर, भचि स्नान ................................................................................................ 27 3. तुम जानत तुम देत जनाई.................................................................................................. 50 4. महासुखः फैलना और फैलते जाना ...................................................................................... 72 5. गगन-मंददल दृढ़ डोरर लगावहु ........................................................................................... 95 6. अंतर्ाात्रा ह ैपरमात्मा...................................................................................................... 118 7. साध तें बड़ा न कोई ........................................................................................................ 140 8. गुरु ह ै शमा, चशष्र् परवाना ............................................................................................. 163 9. र्चह नगरी में होरी खेलौं री ............................................................................................. 186 10. शाश्वत संगीत भीतर है.................................................................................................... 210 1 अरी, मैं तो नाम के रंग छकी पहला प्रवचन चाहत खैंचच सरन ही राखत साईं, जब तुम मोचह चबसरावत। भूचल जात भौजाल-जगत मां, मोहहं नाहहं कछु भावत।। जाचन परत पचहचान होत जब, चरन-सरन लै आवत। जब पचहचान होत है तुमसे, सूरचत सुरचत चमलावत।। जो कोई चहै दक करौं बंदगी, बपुरा कौन कहावत। चाहत खैंचच सरन ही राखत, चाहत दूरर बहावत।। हौं अजान अज्ञान अहौं प्रभु, तुमतें कचहकै सुनावत। जगजीवन पर करत हौ दार्ा, तेचहते नहहं चबसरावत।। बहुतक देखादेखी करहीं। जोग जुचि कुछ आवै नाहीं, अंत भमा महं परहीं।। गे भरुहाइ अस्तुचत जइे कीन्हा, मनचह समुचि ना परई। रहनी गहनी आवै नाहीं, सब्द कहे तें लरई।। नहीं चववेक कहै कछु औरे, और ज्ञान कचि करई। सूचि बूचि कछु आवै नाहीं, भजन न एको सरई।। कहा हमार जो मानै कोई, चसद्ध सत्त चचत धरई। जगजीवन जो कहा न मानै, भार जाए सो परई।। बहु पद जोरर-जोरर करर गावहहं। साधन कहा सो कारि-कपरिकै, अपन कहा गोहरावहहं।। हनंदा करहहं चववाद जहां-तहं, विा बड़े कहावहहं। आप ुअंध कछु चेतत नाहीं, औरन अिा बतावहहं।। जो कोउ राम का भजन करत है, तेचहकां कचह भरमावाह। माला मुद्रा भेष दकए बहु, जग परमोचध पुजावहहं।। जहंते आए सो सुचध नाहीं, िगरे जन्म गवावहहं। जगजीवन ते हनंदक वादी, बास नका महं पावहहं।। जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में हार् वो और इक उजड़े हुए काशाने म ें चमलती है उम्रे-अबद इश्क के मैखाने म ें ऐ अजल तू भी समा जा मेरे पैमाने म ें 2 हरमो-दैर में ररंदों का रिकाना ही न िा वो तो र्े कचहए अमां चमल गई मैखाने में आज तो कर ददर्ा साकी ने मुिे मस्त-अलस्त डाल कर खास चनगाहें मेरे पैमाने में आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्र्ा है अपना अफसाना चमला कर चमरे अफसाने में हज्बे-मर् ने चतरा ऐ शैख भरम खोल ददर्ा तू तो मचस्जद में है नीर्त तेरी मैखाने में मश्वुरे होते हैं जो शैखो-चबरहमन में "चजगर" ररंद सुन लेते हैं, बैिे हुए मैखाने में प्रेम का मागा मस्ती का मागा है। भचि अिाात एक अनूिे ढंग का पागलपन। तका नहीं, तकासरणी नहीं, प्रीचत का एक सेतु। बुचद्ध से तलाश नहीं होती परमात्मा की, हृदर् से होती है। बुचद्ध से जो खोजते हैं, खोजते बहुत, पात े कुछ भी नहीं। हृदर् से खोजो भी न, चसफा पुकार उिे, चसफा प्र्ास उिे, जहां बैिे हो वहीं परमात्मा का आगमन हो जाता है। प्रेमी को खोजने नहीं जाना पड़ता; परमात्मा खोजता हुआ चला आता है। भचि के शास्त्र का र्ह सबसे अनूिा चनर्म है। जगजीवन के सूत्र इस चनर्म से ही शुरू होते हैं। लेदकन र्ह बात बड़ी उलिी है। ज्ञानी खोज-खोज कर भी नहीं खोज पाता और भि चबना खोजे पा लेता है। इसचलए बात िोड़ी बेबूि है। दीवानगी की है, पागलपन की है। पर प्रेम पागलपन का ही चनचोड़ है। जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में खोजने वाले जाएंगे कहां? र्ा मंददर जाएंगे र्ा मचस्जद जाएंगे। खोजने वाला जाएगा ही बाहर। खोज का मतलब ही होता है--बाहर, बचहर्ाात्रा। खोजने वाला चारों ददशाओं में भिकेगा। जमीन में खोजेगा, आकाश में खोजेगा। जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में और जो न मंददर में सीचमत है और न मचस्जद में, न काबा में, न कैलाश में, उस े तुम कैसे खोजोगे काबा में-कैलाश में? उसे खोजने गए, उसी में भूल हो गई। उसे खोजने गए, उसमें ही तुमने पहला गलत कदम उिा चलर्ा। खोजने तो उसे जाना पड़ता है जो कहीं महदूद हो। कहीं सीचमत हो। जो दकसी ददशा में अवरुद्ध हो। चजसका कोई पता-रिकाना हो। चजसकी तरफ इशारा दकर्ा जा सके दक र्ह रहा। अंगुली उिाई जा सके। परमात्मा तो सब जगह है। इसचलए उसका कोई पता तो नहीं है! न उत्तर, न पचिम, न पूरब। परमात्मा पूरब म ें नहीं है, पूरब परमात्मा में है। न परमात्मा पचिम में है। पचिम परमात्मा में है। परमात्मा वहां नहीं है, परमात्मा र्हां है। तुम परमात्मा को खोजने जाते हो--उसी में भिक जाते हो। क्र्ोंदक तुम परमात्मा में हो। जैसे चली मछली सागर की खोज में! और सागर में है मछली। खोज ही भिकाएगी। खोज ही न पहुंचने देगी। जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में हार् वो और इक उजड़े हुए काशाने म ें 3 चजस ददन उससे चमलन होता है, उस ददन बड़ी हैरानी होती है। जो सुंदर से सुंदर मंददरों में नहीं पार्ा चजसे, परंपरा से पूचजत तीिों में नहीं पार्ा चजसे, उसे अपने िूि ेघर में पार्ा! हार् वो और इक उजड़े हुए काशाने म ें अपने इस छोि े से घर में पार्ा उसे! उस ददन भरोसा नहीं आता, चवश्वास भी नहीं आता, दक चजसे हम खोजने चले िे, वह खोजने वाले में ही चछपा िा। और जब तक हम खोजते िे तब तक हम भिकते िे। प्रेमी खोज छोड़ देता है। प्रेमी चसफा पुकारता है। जैसे छोिा बच्चा रोता है। खोजने जाए तो जाए कहां? असहार् भी है--अभी चल भी तो नहीं सकता। और आदमी इतना ही असहार् है। परमात्मा की र्ात्रा पर चलने वाले पैर हमारे पास कहां? सामर्थर्ा कहां, शचि कहां? र्ह अहंकार ही है जो तुमसे कहता है दक खोजो तो चमल जाएगा। र्ह अहंकार ही है जो तुम्हें भरमाता है, भिकाता है। रोओ--भि कहता है--खोजो मत; पुकारो! जैसे छोिा बच्चा अपने िूले में पड़ा ही पुकारता है। जाए तो जाए कहां? जाए तो जाए कैसे? न जाने की सामर्थर्ा है, न उिने की सामर्थर्ा है। लेदकन उसके रोने की आवाज सुन कर मां दौड़ी चली आती है। दफर मां और बच्चे में तो िोड़ी दूरी भी है, उतनी भी दूरी तुममें और परमात्मा में नहीं। तुम चजसे खोजने चले हो, वह तुम्हारा स्वरूप है। गहन पुकार! तीव्र पुकार! बस तुम्हारे ही प्राणों को छेद जाती है चबजली की कौंध की भांचत। और इसी िूि े घर में, इसी खंडहर में, चजसे तुमने कभी मंददर की तरह सोचा भी न िा! और तुम्हारे तिाकचित साधु-संत तो तुम्हें इस शरीर की हनंदा चसखा रहे हैं। वे तो कह रहे हैं, इसी शरीर के कारण तुम भिक गए हो। और चजन्होंने जाना ह,ै उन्होंने इसी शरीर में उसे जाना है। दफर र्ह शरीर कैसा ही हो--काला हो दक गोरा हो, स्वस्ि हो दक अस्वस्ि हो, जवान हो दक बूढ़ा हो, भेद नहीं पड़ता, इसी में चछपा है। इसी िूि े घर में चछपा है। चैतन्र् उसका ही दूसरा नाम है। तुम्हारे भीतर जो ददर्ा जल रहा है, होश का, र्ह उसकी ही उपचस्िचत है। चमलती है उम्रें-अबद इश्क के मैखाने म ें र्ह प्रेम की मधुशाला में जो प्रचवष्ि होता है, वही इस रा.ज को समि पाता है। और उस े ऐसी उम्र चमल जाती ह ै चजसका कोई अंत नहीं। उसे शाश्वतता चमल जाती है। उसे अमृतत्व चमल जाता है। अमृतस्र् पुत्रः। उस े अनुभव होता है दक मैं अमृत का ही बेिा हं। दक मैं उसी से आर्ा हं, वही हं, उसी तरफ जा रहा हं। उसी में हं, उसी का हं। भिकूं तो भी उसी में भिक रहा हं। भूल जाऊं तो भी उसी में हं। चबल्कुल स्मरण न रहे तो भी उससे दूर जाने का उपार् नहीं है। चमलती है उम्रें-अबद इश्क के मैखाने म ें ऐ अजल तू भी समा जा मेरे पैमाने म ें भि के प्रेम में इतनी सामर्थर्ा है दक मौत को भी उसमें डुबा लेता है। मौत समाप्त हो जाती है। उसके प्रेम में ही मौत मर जाती है। प्रेम एकमात्र स्वर ह ैशाश्वतता का। प्रेम एकमात्र अनुभव है अमृत का! हरमो-दैर में ररंदों का रिकाना ही न िा मंददर में और मचस्जद में मतवालों के चलए जगह ही न िी। वहां तो होचशर्ार अड्डा जमा कर बैि गए हैं। वहां तो चालबाज, चतुर-चालाक, पंचडत-पुरोचहत, ध्र्ानी माचलक होकर बैि गए हैं। हरमो-दैर में ररंदों का रिकाना ही न िा वहां चपर्क्कड़ों को कौन घुसने दे? वहां प्रेचमर्ों को कौन घुसने दे? वहां तो प्रािानाएं भी औपचाररक हो गई हैं। उन प्रािानाओं से अब आंसू पैदा नहीं होते। 4 वहां तो पूजा भी जड़ हो गई है। पैर नाचते नहीं, हृदर् में नृत्र् नहीं होता। आरती उतरती है, आदमी अछूता का अछूता रह जाता है। फूल चढ़ जाते हैं, प्राणों का फूल अनचढ़ा रह जाता है। पाखंड हो रहा है, प्रािाना नहीं हो रही है। प्रािाना तो प्रेम में ही हो सकती है। और प्रेम के कोई चनर्म नहीं होते। प्रेम की कोई मर्ाादा नहीं होती। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती। प्रेम के कोई बंधे हुए ढंग नहीं होते। प्रेम तो सहज होता है, स्वस्फूता होता है। हरमो-दैर में ररंदों का रिकाना ही न िा वो तो र्े कचहए अमां चमल गई मैखाने में वह तो र्ह गनीमत समिो दक कभी-कभी कोई मधुशाला भी होती है। मंददरों और मचस्जदों के इस उपद्रव में कभी-कभी कोई मधुशाला भी होती है--खैर, समिो! कभी कोई बुद्ध, कभी कोई मीरा, कभी कोई जगजीवन, कभी कोई कबीर, कभी कोई क्राइस्ि, कभी कोई कृष्ण--कभी-कभी--जमीन तो मंददर-मचस्जदों से भरी ह ै लेदकन कभी-कभी र्हां कोई मधुशाला भी हो जाती है। वहीं शरण चमल जाती है। वहीं दीवाने बैि कर रो लेते हैं और पा लेते हैं। वहीं दीवाने बैिकर गा लेते हैं और पा लेते हैं। वहीं दीवाने बैि कर मस्त हो लेते हैं और परमात्मा आ जाता है। कहीं जाना नहीं पड़ता। आज तो कर ददर्ा साकी ने मुिे मस्त-अलस्त डाल कर खास चनगाहें मेरे पैमाने में एक बार तुम पागल होने की चहम्मत तो जुिाओ, भरे तो तुम्हारी आंखें आंसुओं से, भरे तो तुम्हारा हृदर् पुकार स,े प्र्ास से--और कर देगा वह तुम्हें मस्त! आज तो कर ददर्ा साकी ने मुिे मस्त-अलस्त डाल कर खास चनगाहें मेरे पैमाने में और तुम्हारे हृदर् की प्र्ाली में चजस ददन उसकी चनगाहें पड़ेंगी... ! पुकारो तो सही; रोओ तो सही; गुनगुनाओ तो सही, नाचो तो सही; चनर्म तो छोड़ो, मर्ाादा तो तोड़ो; िोड़े सहजस्फूता, स्वाभाचवक; न हहंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जनै , न बौद्ध, बस आदमी--बस उतना काफी है, उतना पर्ााप्त है। एक असहार् शरणभाव दक मेरे खोजे से कुछ भी न होगा, अब तू मुिे खोज! मैं तो चलता रहा, चलता रहा, चलता रहा, जीवन-जीवन बीत गए, एक इंच भी र्ात्रा पूरी नहीं हो सकी, अब तो बैि गर्ा िक कर, अब तू ही हाि बढ़ा! र्ही भचि का बुचनर्ादी आधार है। परमात्मा खोजे भि को। आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्र्ा है र्ह प्रेम का राज, र्ह प्रेम का रहस्र्, र्ह प्रेम का रस, स्वाद क्र्ा है, देखें तो सही! आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्र्ा है अपना अफसाना चमला कर मेरे अफसाने में और ऐसे दीवानों, जगजीवन जैसे दीवानों के पास अगर तुम्हें बैिना हो जाए, तो .जरा उनकी कहानी में अपनी कहानी चमला लेना, उनके गीत में अपना गीत डुबा देना, उनके प्रेम में अपने प्रेम को चमला लेना; उनके साि नाच उिना, उनके साि गा उिना! आप देखें तो सही रब्ते-मोहब्बत क्र्ा है अपना अफसाना चमलाकर मेरे अफसाने में 5 और जब कभी ऐसी कोई मधुशाला जागती-जीती, जब कभी कोई ऐसा अलमस्त फकीर नाचता-गाता, जब कहीं मधुक पर मधुकलश ढाले जाते हैं, तो तुम र्ह मत समिो दक भि ही पाते हैं। मंददरों और मचस्जदों में बैिे हुए पुजारी और पंचडत भी तड़फते हैं--आ नहीं पाते क्र्ोंदक उनके न्र्स्त स्वािा वहां अिके हैं; उनके सारे स्वािा वहां जुड़े हैं। चहम्मत नहीं जुिा पात,े लेदकन ईष्र्ाा तो जगती है, जलन तो पैदा होती है। उस जलन का लक्षण? दक वह इस तरह की मधुशालाओं का चवरोध करते हैं। नहीं तो क्र्ा पड़ी! मंददर-मचस्जदों में बैिे हुए लोगों को मेरे चवरोध की क्र्ा पड़ी? पंचडत-पुजारी को मुिसे क्र्ा लेना-देना है? मैं अपना गीत गाऊंगा, चवदा हो जाऊंगा, वे अपना काम करें। नहीं लेदकन वह बड़े बेचैन हैं। उनको भी ईष्र्ाा हो रही है। कुछ घि रहा है, और वे चूके जा रहे हैं। इतना साहस भी नहीं है दक जीवन के छोि-े मोिे स्वािों को छोड़ कर आ सकें! मेरे पास साधुओं के पत्र आत े हैं दक हम आना चाहते हैं, मगर कैसे आएं? हजार बाधाएं हैं। समाज आन े नहीं देगा। हमारे श्रावक आन े नहीं देंगे। लोगों को पता चल जाएगा दक हम आए िे तो हमें बड़ी मुसीबत होगी। ऊपर-ऊपर तो हम आपका चवरोध ही करते हैं। भीतर-भीतर हम आपके वचनों को भी पढ़ते हैं, उनमें डूबते भी हैं, रस भी पाते हैं, जानते भी हैं, दक कुछ हो रहा है, जाना िा, चहम्मत नहीं जुिा पाते। आए ददन पत्र आत े हैं! आए ददन लोग खबरें लेकर आत े हैं दक फलां साधु, दक फलां महात्मा, दक फलां साध्वी आना चाहती है! तैर्ार है! हज्बे-मर् ने चतरा ऐ शैख भरम खोल ददर्ा और वह जो शराब की हनंदा कर रहा है मंददर में बैिकर पुजारी, उसकी शराब की हनंदा ने ही उसका भरम खोल ददर्ा है-- तू तो मचस्जद में है नीर्त तेरी मैखाने में मश्वुरे होते हैं, जो शैखो चबरहमन में "चजगर" ररंद सुन लेते हैं बैिे हुए मैखाने में, वे जो मशवरे हो रहे हैं अचस्तत्व में, जहां पहुंचे हुए लोगों के वाताालाप हो रहे हैं जहां बुद्ध और महावीर, जहां कृष्ण और क्राइस्ि, जरिुस्त्र और मोहम्मद, और उनके बीच जो मशवरे हो रहे हैं, जो गुफ्तगू हो रही है, वह प्रेम में जो डूब जाते हैं--ररंद सुन लेते हैं, बैिे हुए मैखाने में--वे अपनी मधुशाला में ही बैिे-बैिे सब पा लेते हैं। सारे बुद्धों का सार उन पर बरस जाता है। ऐसे ही एक बुद्धपुरुष जगजीवन के वचनों में हम उतरते हैं-- साईं, जब तुम मोचह चबसरावत। जगजीवन कहते हैं, र्ह मैं तुमसे कह दंू--परमात्मा से कह रहे हैं वह दक र्ह मैं तुमसे कह दंू--दक तुम जब मुिे चबसार देते हो तब ही मैं तुम्हें भूल जाता हं, र्ह बड़े मजे की बात! जगजीवन कह रहे हैं दक जब तुम मुिे चबसार देते हो तब ही मैं भूल जाता हं तुम्हें, र्ाद रखना! जब तुम मुिे र्ाद कर लेते हो, तब मैं तुम्हें नहीं भूल पाता हं। सब तुम्हारे साि हैं। र्ाद करो तो तुम र्ाद कहते हो मुिे, भूल जाओ तो मैं भूल जाता हं। मैं इतना असहार् हं दक र्ाद भी मेरे बस में नहीं। इतनी भी मेरी सामर्थर्ा नहीं है दक तुम्हें र्ाद करूं --खोजने की तो बात छोड़ो! रूं कर तुम्हें भुलाएं! इतनी भी मेरी शचि नहीं है। वह तो जब कभी तुम मुिे र्ाद आ जाते हो, तो मैं जानता हं दक जरूर तुमने मुिे र्ाद दकर्ा होगा! नहीं तो तुम मुिे र्ाद भी आ सकते िे, इसका मुिे भरोसा नहीं है। और जब मैं भूल जाता हं, तब मैं जानता हं दक तुमने मुिे चबसरा ददर्ा। 6 र्ह प्रीचतभरा उलाहना देखा? र्ह चसफा भि ही चहम्मत कर सकता है। र्ह चशकार्त देखी--र्ह प्रािाना भरी चशकार्त देखी? र्ह चनभार् चनवेदन देखा? र्ह समपाण की अंचतम पराकाष्ठा देखी? सब छोड़ ददर्ा! --सब! प्रािाना भी, स्मरण भी! साईं, जब तुम मोचह चबसरावत। हे मेरे माचलक, जब तुम मुिे भुला देत ेहो, ... भूचल जात भौजाल-जगत मां, ... तभी मैं संसार में उलि जाता हं। ध्र्ान रखना, दोष तुम्हारा है, मेरा नहीं। मैं तो अबूि। बच्चा अगर खो जाए मेले में, तो दोष दकसका है? बच्चे का? दक उसकी मां का, दक उसके चपता का? ज्ञानी की र्ह चहम्मत नहीं है। ज्ञानी की अकड़ है। ज्ञानी कहता है दक अगर मैं तुिे भूल गर्ा--तो मैं भूल गर्ा। समिना! ज्ञानी कहता है, मैं भूल गर्ा हं तुिे, र्ाद करूं गा! खोजूंगा, तपिर्ाा करूं गा, व्रत-चनर्म-उपवास साधूंगा! साधना--और एक ददन चसचद्ध होगी। मैं ही तुिे र्ाद करूं गा, मैं ही तुिे पाऊंगा। भि कहता है--न तो मैं तुिे पा सकता, न तुिे र्ाद कर सकता, इतना जानता हं दक कभी-कभी जरूर तू मुिे र्ाद करता होगा, क्र्ोंदक अनार्ास--अनार्ास! --न मालूम दकस कोर, दकस दकनारे से तेरी र्ाद मेरे भीतर आ जाती है! मुिे कोई कारण मेरे भीतर नहीं ददखाई पड़ता। मेरे भीतर कोई जड़ नहीं ददखाई पड़ती चजसमें से वह सुरचत पैदा होती है। लगता है कहीं तेरे तरफ से आती है। र्ह भी क्र्ा मंजर है, बढ़ते हैं न हिते हैं कदम तक रहा हं दूर से मंचजल को मैं, मंचजल मुिे मेरी तो हालत ऐसी है। र्ह भी क्र्ा मंजर है, बढ़ते हैं न हिते हैं कदम न आगे जा सकता है, न पीछे जा सकता है--ऐसी मेरी ददशा है। चहल-डुल भी नहीं सकता। मेरी सामर्थर्ा इतनी छोिी है। एक छोिी बूंद सागर की तलाश पर चनकले भी तो क्र्ा चनकले! न मालूम दकन मरुस्िलों में कहां खो जाएगी। बूंद की सामर्थर्ा क्र्ा है सागर की खोज करे! र्ह तो सागर ही उिाले तो उिाले। र्ह भी क्र्ा मंजर है, बढ़ते हैं न हिते हैं कदम तक रहा हं दूर से मंचजल को मैं, मंचजल मुिे देखता रहता हं िकिकी बांधे। लेदकन फासला ऐसा लगता है दक अंतहीन। अनंत। मैं पहुंच सकूंगा इतनी र्ात्रा कर दूर के तारे तक, र्ह मेरी सामर्थर्ा नहीं। र्ह मेरा बस नहीं। लेदकन दफर भी कभी-कभी तू बड़े पास से सुनाई पड़ता है। र्ादे-जानां भी अजब रूह-.ाा.जा णातात है सांस लेता हं तो जन्नत की हवा आती है मगे-नाकामे-मोहब्बत चमरी तक्सीर मुआफ जीस्त बन-बन कर चमरे हक में कजा आती है नहीं मालूम वे खुद हैं दक मोहब्बत उनकी पास ही से काई बेताब सदा आती है समि मुिे कुछ पड़ता नहीं! तूने पुकारा र्ा तू खुद मेरे पास से गुजर गर्ा! नहीं मालूम वो खुद हैं दक मोहब्बत उनकी 7 पास ही से कोई बेताब सदा आती है हृदर् के चबल्कुल पास से, इतने पास से दक हृदर् के भीतर से कोई आवाज आती है, भर लेती है मुिे, आहलंगन में ले लेती है मुिे। कोई गंध चछिका जाता मुि पर। कोई गीत बरसा जाता मुि पर। र्ादे-जानां भी अजब रूह-फजा आती है सांस लेता हं तो जन्नत की हवा आती है मगर कभी-कभी ऐसा होता है--जरूर तेरे कारण होता होगा; मेरे कारण होता तो सदा कर लेता... समिना! अगर मेरे बस में होता तो चौबीस घंि े कर लेता, तेरी र्ाद भी, हे प्र्ारे, तेरी र्ाद भी--"र्ादे-जानां भी अजब रूह-फजा आती है।" र्ह भी एक रहस्र् है, कब आती है, कब नहीं आती? क्र्ों आती है, क्र्ों नहीं आती? कभी तो चाहता हं और नहीं आती। और कभी ना-चाहे उतर आती है। अनार्ास! भि चदकत होता है। भि सदा आिर्ा चवमुग्ध होता। कभी ऐसा प्रसाद बरसता है उस पर दक र्ह तो सोच भी नहीं सकता दक र्ह मेरे प्रर्ास का पररणाम है। कोई तालमेल नहीं। प्रर्ास इतना छोिा है और प्रसाद इतना बड़ा है, दक इसमें संबंध जुड़ता नहीं--कार्ा-कारण का संबंध नहीं जुड़ता। भि की चेष्टा--ना-कुछ, बूंद जैसी। और भि की उपलचब्ध--सब कुछ। महासागर जैसी। इसमें कुछ संबंध नहीं है कार्ा-कारण का। कुछ मैंने पुकारा इसचलए तू मुिे चमल गर्ा--ऐसी भूलभरी बात भि नहीं कह सकता। मगे-नाकामे-मोहब्बत मेरी तक्सीर मुआ जीस्त बन-बन के मेरे हक में कजा आती है मौत भी आती है तो भी मेरे हक में जीवन बन जाती है। दुख भी आता है, तो मेरे हक में सुख बन जाता है। कांिा भी चुभता है तो न मालूम कौन, दकस चमत्कार से उस े फूल बना जाता है। भक्त के जीवन में दुघािनाएं भी सौभाग्र् होने लगती हैं। इसचलए भि कहता है, र्े मेरे दकए नहीं हो रहा है। सब तेरा है। साईं, जब तुम मोचह चबसरावत। भूचल जात भौजाल-जगत मां, मोचह नाहहं कछु भावत।। सब भूल-भाल जाता हं। स्मरण ही नहीं आता, परमात्मा की सुध भी नहीं उिती, सत्र् का चवचार भी नहा जगत्ाा। ऐसे भिक जाता हं जैसे तुिसे कोई पहचान ही नहीं। मगर दोष तेरा है। र्ह चहम्मत भि की है! र्ह चहम्मत त्र्ागी की, तपस्वी की, ज्ञानी की नहीं है। र्ह चहम्मत भि की है, र्ह चहम्मत प्रेमी की है--दक दोष तेरा है। तू तो बड़ा है; तू तो रहमान है, रहीम है, हम भूलें भी, तो तू तो मत छोड़! हम हाि भी छोड़ दें तो तू तो हाि पकड़े रख! हम अंधेरे में खो भी जाएं तो तू तो हमारा पीछा कर सकता है! हम तेरी तरफ पीि कर लें, लेदकन तुिे कौन रोकता िा दक सामने आकर खड़ा न हो जाए! जाचन परत पचहचान होत जब, चरन-सरन लै आवत। लेदकन र्ह बात तुम्हें तब समि में आएगी जब पहचान होगी। जब प्रसाद बरसेगा तब समि में आएगी र्ह बात दक अपने प्रर्ास की क्र्ा सामर्थर्ा, क्र्ा औकात! जैसे कोई चम्मच से सागर को खाली करने में लगा हो, ऐसे हमारे प्रर्ास हैं। और एक ददन सागर खाली हो जाए तो क्र्ा तुम समिोगे दक तुम्हारी चम्मच के खाली करने स े खाली हो गर्ा! जाचन परत पचहचान होत जब, ... 8 र्ह बात--जगजीवन कहते हैं--तुम तब समि पाओगे जो मैं कह रहा हं, जब पहचान होगी। तब तुम पाओग,े अपना दकर्ा तो रंचमात्र िा और जो चमला है, वह अपार है। कोई संबंध हमारे कृत्र् में और हमारी उपलचब्ध में नहीं है। साधना और चसचद्ध में कोई संबंध नहीं है। इसचलए भचि कहती हैः प्रर्ास से नहीं चमलता परमात्मा, प्रसाद से चमलता है। उसकी ही अनुकंपा से चमलता है। जब वह तुम्हें चरण में ले लेता है, जब अचानक वह तुम्हें िुका लेता अपनी शरण म.ें.. तुम्हारे िुकने से तुम न िुकोगे। इस संबंध में एक मनोवैज्ञाचनक सत्र् समि लेना उपर्ोगी होगा। तुम जो भी करोगे, उससे तुम्हारा अहंकार ही बढ़ेगा। जो भी! बेशता! उपवास करोगे, तो अहंकार बढ़ेगा। र्ोग साधोगे तो अहंकार बढ़ेगा। तुम जो भी करोगे तुम ही करोगे न! तुम्हारे करने से तुम्हारा कताा पुष्ट होगा। तुम अगर अकताा होकर भी बैि जाओगे, तुम कहोगे--मैं कुछ नहीं करता, तो भी कताा पुष्ट होगा भीतर से, तुम कहोगे दक देखो, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हं। मैं अकताा हो गर्ा हं। लेदकन "मैं" बनेगा। इस "मैं" के बाहर जाने का उपार् क्र्ा है? और समस्त धमो ने कहा हैः "मैं" के जो बाहर गर्ा, वही परमात्मा में गर्ा। इस "मैं" के बाहर जाने की चवचध क्र्ा है दफर? क्र्ोंदक जो भी हम करेंगे उससे "मैं" ही मजबूत होगा। अचनवार्ारूपेण। चनरपवाद। कुछ भी करो। अकमा भी करो, अदक्रर्ा भी साधो, शांत होकर बैि जाओ, मौन करो, ध्र्ान करो, लेदकन जो भी तुम करोगे वह तुम्हारे कतााभाव को मजबूत करेगा। और तुम्हारा कतााभाव ही तो अहंकार है। तो दफर उपार् क्र्ा है? भि कहता है, उस पर छोड़ो। उसे करने दो! तुम कहो दक र्ह रहा मैं, तू कर! तुम प्रतीक्षा करो! प्रर्ास नहीं, प्रतीक्षा! और प्रतीक्षा का ही नाम है प्रािाना। प्रािाना का अिा है, तू कुछ कर। प्रािाना का सारसूत्र इतना ही है : मेरे दकए सब अनदकर्ा हो जाता है; मैं करता हं तो गलत हो जाता है। िीक भी करता हं तो गलत हो जाता है। दान भी देता हं तो लोभ के कारण देता हं--ऐसी मेरी मुसीबत है। दर्ा भी करता हं तो अहंकार मजबूत होता है। जो भी मैं करूं , उसी में भूल हो जाती ह,ै क्र्ोंदक मेरा "मैं" पीछे से आ जाता है। "मैं" की छार्ा चवषाि कर देती है मेरे कृत्र् को। इसचलए अब मैं क्र्ा करूं ? अब मैं कैसे करूं ? सब चवचध-चवधान व्यिा हैं। अब तू कुछ कर! जाचन परत पचहचान होत जब, चरन-सरन लै आवत। और तब वह अपूवा घिना घिती है : अज्ञात हाि आत े हैं और िुका लेते हैं। एक अज्ञात दकरण उतरती है और अंधेरे को तोड़ जाती है--जन्मों-जन्मों के अंधेरे को। एक अज्ञात बाढ़ आती है और बहा ले जाती है सब कूड़ा-करकि, छोड़ जाती है चनश्छल, पचवत्र, शुद्ध चैतन्र् पीछे। जब पचहचान होत है तुमसे, सूरचत सुरचत चमलावत।। और जब तुम से पहचान होती है, तब मेरी सुरचत और तुम्हारी सूरत एक ही बातों के दो नाम हैं। सुरचत का अिा होता हैः मेरा स्मरण, मेरी स्मृचत, तुम्हारी र्ाददाश्त। जब तुमसे पहचान होती है, तब मेरे भीतर तुम्हारी र्ाद और तुम्हारा चेहरा और तुम्हारी सूरत, इन में भेद नहीं रहता। मेरी सुरचत तुम्हारी सूरत, तुम्हारी सूरत मेरी सुरचत। मेरी नजर से तेरी जुस्तजू के सदके में र्े इक जहां ही नहीं, सैकड़ों जहां गुजरे हुजूमे-जल्वा में परवाजे-शौक क्र्ा कहना दक जैसे रूह चसतारों के दर्मार्ां गुजरे 9 बस जरा-सात एक िलक और आत्मा आकाश में उड़ने लगती है। हुजूमे-जल्वा में परवाजे-शौक क्र्ा कहना दफर ऐसी चहम्मत आती, दफर ऐसा साहस उिता है, दफर डैने फैला कर आदमी चांद-तारों के पास उड़ता है। जो छोिी-मोिी बदचलर्ों के भी पार नहीं जा सकता िा, वह अनंत आकाश को पार कर जाता है। मेरी नजर से मेरी जुस्तजू के सदके में र्े इक जहां ही नहीं सैकड़ों जहां गुजरे तेरी आंख से आंख भर चमल जाए दक एक जहां नहीं, सैकड़ों जहां गुजर जाते हैं। पलभर में अनंत काल बीत जाता है। एक क्षण शाश्वत हो जाता है। "हुजूमे-जल्वा में", और तेरे उस प्रसाद में, तेरे उस रहस्र्पूणा अनुग्रह में, "परवाजे-शौक क्र्ा कहना।" ऐसी चहम्मत, ऐसा साहस इस ना-कुछ में उिता है दक बूंद सागर होने का रस लेने लगती है। ऐसे पंख फैलते हैं-- दक जैसे रूह चसतारों के दर्मार्ां गुजरे-- दफर कुछ हचंता नहीं रह जाती। दफक्रे-मंचजल है न, होशे-जादा-ए-मंचजल मुिे जा रहा हं चजस तरफ ले जा रहा है ददल मुिे दफर कोई हचंता नहीं दक मंचजल कहां है! कोई दफकर नहीं, तेरी आंख से आंख चमली दक मंचजल चमली। "दफक्रे मंचजल है न," अब कुछ हचंता नहीं दक कहां है मंचजल, कहां है गंतव्य--और न इस बात की हचंता है दक मैं िीक रास्ते पर चल रहा हं दक नहीं? र्ह मजे की बात समिना! र्ह गहरी बात पकड़ना! दफक्रे-मंचजल है न, होशे-जादा-ए-मंचजल मुिे अब कौन दफजूल की बकवास में पड़े दक िीक चल रहा हं दक गलत चल रहा हं, दक िीक ददशा में चल रहा हं दक गलत ददशा में चल रहा हं! एक बार उसकी नजर नजर में पड़ी... आज तो कर ददर्ा साकी ने मुिे मस्त-अलस्त डाल कर खास चनगाहें मेरे पैमाने में एक बार उसकी नजर नजर में पड़ी, एक बार पहचान हुई, दफर सभी ददशाएं उसी से भरी हैं और सभी रास्ते उसी के हैं। दफर संसार ही चनवााण है। दफर देह ही आत्मा है। दफर तुम जहां हो, वहां िीक हो। तुम जैसे हो, वैसे ही िीक हो। दफर दुभााग्र् नहीं है, दफर सौभाग्र् ही सौभाग्र् है! जा रहा हं चजस तरफ ले जा रहा है ददल मुिे बस, दफर तुम्हें पता चला--सुराग चमला हृदर् का! जब पचहचान होत है तुमसे, सूरचत सुरचत चमलावत।। जो कोई चहै दक करौं बंदगी, बपुरा कौन कहावत। उस बेचारे को क्र्ा कहें हम, उस पर दर्ा आती है, जो सोचता है दक--"जो कोई चहै दक करौं बंदगी", दक मैं प्रािाना करूं गा, दक मैं बंदगी करूं गा, वह बेचारा दर्ा का पात्र है। बंदगी परमात्मा करवाएगा तो होगी! परमात्मा आएगा और िुकाएगा, तो! प्राचीन शास्त्र कहते हैं : जब चशष्र् तैर्ार होता है, गुरु उपचस्ित हो जाता है। जब भि तैर्ार होता है, परमात्मा आकर उसे घेर लेता है। 10
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