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2020 Or Before -Shri Tripuramba Shambhavi Maha Prapatti PDF

2020·0.16 MB·Hindi
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श्रीत्रिपुराम्बाशाम्भवीमहाप्रपत्रतिः (संस्कृत पाठ एवं त्रहंदी व्याख्या युक्त) श्रीमन्महामत्रहम त्रवद्यामाततण्ड श्रीभागवतानंद गुरु ★★ ॐ ★★ याकाश े त्रनगमात्रदवाग्सनु त्रमता सष्ट्यृ ात्रदहेतुप्रभा, ब्रह्मात्रवष्णमु हेश्वरेश्वरसदाशवै ासन े संस्थिता। योत्रगन्यात्रदगणौघसत्रे वतपदां ब्रह्माक्षराभ्यन्तरां, श्रीत्रवद्यामत्रहमाल्यभषू णयतु ामोकं ारतत्ां नमु :॥१॥ जो प्रकाशपंजु में स्थित वेदात्रद के वचनो ं द्वारा प्रणाम की गई हैं, पञ्चमहाप्रेत (ब्रह्मा, त्रवष्णु, रुद्र, ईश्वर एवं सदाशशव) के आसन पर त्रवराजमान हैं, योत्रगनी आत्रद के गणो ं के समूहो ं के द्वारा शजनके चरणो ं की सेवा की गई है, ऐसी नागरूपी माला से अलंकृत, ॐकार तत् की स्वात्रमनी श्रीत्रवद्या को हम प्रणाम करते हैं। भोगैश्वयतप्रदानसंगत्रतरतां पष्पु क्षे कु ोदण्डकां, त्रवद्याक्षाभययोगमागतजननी ं रुद्रांकभागे गताम्। चन्द्रार्ाशत ितहैममस्तकमहामाशणक्यदेहोज्ज्वला,ं श्रीत्रवद्यां त्रिपरु ास्थम्बकामभयदामद्वैतवीया ां नमु :॥२॥ जो भोग एवं ऐश्वयत को प्रदान करने के स्वभाव वाली हैं, जो पुष्प एवं ईख के बने र्नुष को र्ारण करती हैं, जो त्रवद्या का ज्ञान कराने वाले अभयसंज्ञक योगमागत को उत्पन्न करती हैं, एवं रुद्र के अंक में स्थित हैं, स्वणत के समान आभा वाले शजनके मस्तक में अर्द्तचन्द्र सुशोशभत हैं तथा महान् माशणक्य के समान शजनके शरीर की रक्ताभा है, जो सभी लोको ं की माता हैं, सार्क को अभयदान देने वाली हैं, शजनके पराक्रम की तुलना त्रकसी से नही ंहैं, उन श्रीत्रवद्या को हम प्रणाम करते हैं। अदेत सक्ष्मू पथगम्यमहात्मभावमासत्रक्तदोषगतगोत्रिशचत्रत िपध्वे म्। त्रनष्कृष्टदेत्रवचरणामृतनत्यै लाभ,े व्रज्यास्त कां त्रनवशदां शरणं मनष्यु ा:॥३॥ हे मनुष्यो ं ! सूक्ष्म मागत के द्वारा शजस महान् आत्मबोर् के भाव की प्रात्रि होती है, उसकी याचना करो। अपने अंदर आसत्रक्त आत्रद दोष की संगत्रत का बोर् होने पर लज्जा के भाव से युक्त बनो। अभी जो श्रीदेवी के चरणामृत का त्रनत्य लाभ त्रमल रहा है, जब उससे वंशचत कर त्रदए जाओगे, तब त्रकस त्रवशशष्ट अभीष्ट की शसत्रर्द् कराने वाली के शरण में तुम्हें जाना चात्रहये ? (अथातत्, देत्रवकृपा से वंशचतो ं के शलये कोई भी िान शरण हेतु उपयक्तु नही ंबचेगा)। ह्नोषीमहीत्थमर्ुना त्रनजपापबुत्रर्द्ं, सत्संगमेन त्रबशभयाम कुमागतसंगात्। प्राखयतजन्यमुपदानमलोलबुद्ध्या, प्रालेयसंघ इव आतपचण्डकाले॥४॥ हम, सत्पुरुषो ं की संगत्रत के द्वारा (प्रेररत होकर) कुमागत के संग से डरें और दष्टु ता की भावना से जन्य दरु ाचार हेतु उत्कोच (ररश्वत) रूपी प्रलोभन को दृढ़ मत्रत से, साथ ही अपनी पापबुत्रर्द् को, अब इस प्रकार से शिपा लें जैसे भीषण गमी के समय त्रहमखंड शिप जाते हैं (नष्ट हो जाते हैं या दृत्रष्टगोचर नही ंहोते)। प्रिम्पचोऽत्रप त्रनतरां तव मोहकास्त्रैस्पवतन ् कुत्रनस्थित्रवत्रवहारबशलष्णबु स्तिः। बल्यौ तवात्रिकमलावत्रप चारुहास,े त्त्प्रमे वशञ्चतजनाय बशलन्दमाय॥५॥ कठोर व्रत का पालन करने वाले वानप्रिी तपस्वी भी तुम्हारे मोहक मायामय अस्त्रो ं के द्वारा बकरे के समान मोत्रहत होकर पत्रतत वणतसंकरो ं के संसगत में पड़कर अपमात्रनत गत्रत को प्राि हो जाते हैं। हे मनोहर मुस्कान वाली देत्रव ! जो जन तुम्हारी प्रेमपूणतता से वशञ्चत हैं, वे यत्रद त्रवष्णु के समान भी बशलि हो ं तो भी उनके शलए तुम्हारे चरणकमलो ं की शत्रक्त अशर्क ही हैं (अथातत्, तुम्हारी माया को वे नही ंजीत सकते)। भौवात्रदकान्तत्रनर्नो ह्यमत्रु नव्रतो य:, प्रािं ु त्रहरण्यमनमु ीवत्रत सन्तलोकम्। मुस्तन्तमेव मुत्रहरं तव वासनान्यो, सम्यग्ददात्रत मत्रतमान ् स मुखम्पच: स्यात्॥६॥ भौत्रतक सुखो ं की लालसा में प्राण त्याग देने वाले असंयमी जन जब र्नात्रद के लोभ से महात्माजनो ं के पास जाते हैं, उस समय उस संग्रहपरायण मूखत को जो तुम्हारे मशन्दरो ं का पता बता देता है, वह बुत्रर्द्मान् ही सच्चा सार्ु है (अथातत्, श्रीदेवी के मशन्दर में उपासना करने वाले को भोग के साथ साथ मोक्ष भी त्रमलता है, इसी उभयलाभ की कामना मत्रतमान् करते हैं)। देहम्भराप्लतु र्रातलभागमध्य,े संशचन्तकैमतर्ुरकात्रमनीदेहभागान।् त्ां नान्तरीयकमतेन भजस्थन्त लोके, को सम्भवदे शर्कभाग्ययतु ो महेशश ! ॥७॥ संुदर शस्त्रयो ं के शरीर का शचंतन करने वाले, माि उदरपोषण हेतु जीवन र्ारण करने वालो ं से भरी इस पृथ्वी में जो अनन्यभाव से आपकी आरार्ना करते हैं, हे महेशश ! उनसे अशर्क भाग्यवान् और कौन होगा ? यद्रावयस्थन्त तव नामयशोनरु क्तास्तण्ृ वस्थन्त त्रकशञ्चदत्रप शष्कु मशष्कु मेव। सुन्वस्थन्त यतवमखु ेन्दत्रुनमग्नशचता, वेदाथदत ेवरसजह्नसु तु ासमाना:॥८॥ तुम्हारे नाम और यश के गायन में जो अनुरक्त हैं, उनके मुख से कुि भी शब्द त्रनकल जाए, वो मर्ुर या रूखा कुि भी चख लें, आपके मुखचन्द्र के ध्यान में शजनका शचत मग्न रहता है, उनके शरीर से कोई भी जल स्पशत कर जाए, वे (शब्द, भोजन तथा जल, क्रमशिः) वेदाथत के समान (गूढ़), अमृत के समान (मर्ुर) एवं गंगाजल के समान (पत्रवि) हो जाते हैं। प्रत्यक्रु मणे परररम्भत्रक्रयानरु क्ता, संिावसंस्थितनदृ ेवसमूहमख्यु ा:। याशभत्रवतशाथप्रत्रतशाशसतयोगव्यासास्ता वै मृगन्द्रे कटयस्तवपाददास्य:॥९॥ शजनकी संदु रता इतनी तीव्र है त्रक यज्ञमण्डप के स्तुत्रत िान में दीशक्षत होकर खड़े ऋशत्क्समूह के प्रर्ान भी अत्यंत बलपूवतक उनके आशलंगन की कामना और त्रक्रया में अनुरक्त हो जाते हैं, शजनके द्वारा बड़े बड़े योगत्रवस्तारक सार्क भी मोत्रहत होकर उनके द्वारपाल आत्रद के रूप में सेवक बनकर रहने लगते हैं, वे शसंह के समान सूक्ष्मकत्रटभाग वाली कात्रमत्रनयां भी तुम्हारे चरणो ं की दासी ही बन कर रह जाती हैं। ग्रामे वनऽे चलयतु ान्तरदेवखात,े कुञ्जऽे थवायतनप्रस्रवणषे ु देत्रव ! । श्रीशाम्भवीत्रत भवु नश्वे रर जीवकाले, आकारयत्रन्नयतु र्ा त्रिपरु ास्थम्बकेत्रत ॥१०॥ गांव में, वन में, पवततो ं में स्थित गुफाओ ं में, उपवनो ं में, मंत्रदर अथवा झरनो ं के समीप, मैं जहां भी जब तक जीत्रवत रहं तब तक लाखो ं बार हे भुवनेश्वरर ! श्रीशाम्भवी, त्रिपुरास्थम्बके, इस प्रकार से तुम्हें पुकारता रहं। नो चेत्कथञ्चन त्रनमीलनकालमािे, त्रनम्लोचकालसमये पररपोटकेन। त्न्नामकीततनपरान्न शृणोत्रत त्रकशञ्चत्, त्रकं जीत्रवतेन सफलं खलु तस्य लोके ?॥११॥ शजसने अपने जीवन के अन्तकाल में भी त्रकसी भी प्रकार से, कणातत्रद में उत्पन्न रोग के कारण पलक झपकने भर के समय के शलए भी, तुम्हारे नामसंकीतनत में मग्न लोगो ं की वाणी को थोड़ा भी नही ंसुना, इस संसार में उसके जीत्रवत रहने का क्या साफल्य हुआ ? यस्यकै वणशत भु वाचनमष्टशसर्द्ी, सम्प्राप्यते न वदतीह त्रनषद्वरेशश ! । त्रनमृतष्टशचंतनत्रनशम्भु त्रनशीथजीवो, पाप्मा समस्तजगतीव प्रमग्धु बुत्रर्द्:॥१२॥ शजस नाम के एक वणत के भी अिी प्रकार से उच्चारण करने पर अष्टशसत्रर्द्यो ं की प्रात्रि होती है, त्रफर भी जो व्यत्रक्त उसका उच्चारण नही ंकरता, हे कामेश्वरर ! शुर्द् शचन्तनशीलता को नष्ट करने वाला वह, मोत्रहत बुत्रर्द् वाले उल्लू के समान व्यत्रक्त, पूरे संसार में सबसे बड़ा पापी है। व्रीड्यन्तु मात्रहत्रवकर्मप्रत पन्नसंिा:, मोक्षानरु क्तसजु नाररकुयोगवाह:। सोत्प्रासदृश्यमवलोकयत्रत कृतान्तस्थस्तिन ् त्रतशलत्सत्रवथुरेश उदातदण्ड:॥१३॥ व्याशभचाररक वृत्रतयो ं का शजन्ोनं े आश्रय ले रखा है, जो दष्टु जन मोक्ष के मागत पर चलने वाले सज्जनो ं के शिु हैं तथा पात्रपयो ं का भरण पोषण करते हैं, उन्ें लज्जा आनी चात्रहए क्योत्रंक क्रूर राक्षस के समान त्रवशालकाय कालसपत कालदण्ड को उठाये हुए खड़ा रहकर उन दष्टु ो ं के द्वारा त्रकये गए उपहास एवं व्यंग्यात्मक व्यवहार को देख देख कर हंसता रहता है। त्रदव्यावदानतनलु ाकृत्रतसत्रृ ष्टकिी, िलू ा परा त्रकमत्रप सक्ष्मू गता त्रवभाज्या। िैगुण्यसाम्यपररणामत्रवसगतभतू ा, ज्ञानत्रक्रयाजड़त्रनत्रमतत्रवशषे णने ॥१४॥ आप त्रदव्य शत्रक्त से युक्त होकर त्रवस्तृत सृत्रष्ट की रचना करने वाली हैं, जो िूलाविा, पराविा एवं कही ंकही ं सूक्ष्माविा में त्रवभाशजत है। ज्ञान, त्रक्रया एवं जड़ आत्रद त्रवशेषणो ं से युक्त (साशत्क, राजस एवं तामस) त्रिगुणो ं की साम्याविा के पररणामस्वरूप आप सृत्रष्ट से परे स्वरूप में स्थित रहती हैं। (सगत सृत्रष्ट का वाचक है तथा इसके त्रवपरीताथत में त्रवसगत शब्द का प्रयोग होता है। दशतनशास्त्र के अनुसार तीनो ं गुणो ं की साम्याविा में त्रकसी प्रकार की कोई उत्पत्रत नही ंहोती है त्रकंतु जब इनकी वैषम्याविा होती है, तो सृत्रष्ट होती है। त्रिगुणो ं की साम्याविा मूलप्रकृत्रत है तथा वैषम्याविा सृत्रष्ट है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी गुणो ं एवं त्रवकारो ं को प्रकृत्रतजन्य ही कहा गया है :- त्रवकारांश्च गुणांश्चैव त्रवत्रर्द् प्रकृत्रतसम्भवान्। तीनो ं गुणो ं में सत्गुण ज्ञानप्रर्ान, रजोगुण त्रक्रयाप्रर्ान एवं तमोगुण जड़प्रर्ान है शजनके वैषम्य से ही सांसाररक उद्बोर्ो ं का बोर् होता है)। षट्चक्रराजगतत्रबंदकु लात्मरूपा, स्थित्याशत्मका शरर्निःु सशृ णपाशहस्ता। अतं बतत्रहस्थितरथाङ्गदशाशभर्ेशी, एत े तवाशभजनवागशभर्ायकास्त॥े १५॥ मूलार्ार आत्रद ििः चक्रो ं के राजा (सहस्रार) में त्रबंदभु ावस्थित सूक्ष्मरूप मूत्यातत्मक कलारूपा, िूलाविा में जब परा शत्रक्त प्रपञ्च रूपता को प्राि करके िूलरूप को र्ारण करती है, उस रूप में स्थित्याशत्मका, पुनिः िूलाविा को प्राि परा शत्रक्त के बाण, र्नुष, अङ्कुश एवं पाशात्मक त्रनत्यायुर्ो ं से युक्त चतुभुतजा, अन्तिःस्थित चक्रो ं के साथ साथ दशनामो ं वाले श्रीचक्रस्थित बत्रहश्चक्रो ं की स्वात्रमनी, ये तुम्हारे सार्को ं की वाणी से त्रनकले तुम्हारे प्रत्रत सम्बोर्न हैं (अथातत्, ये तुम्हारे त्रवशशष्ट नाम हैं)। शक्ती तवावरणशचह्नगता सकु ेशश ! सत्यप्रवाहपरररोर्नकायतदक्षा। अन्यां कुमोहजननीत्रत वदस्थन्त गाविः, त्रवक्षेत्रपका इतररूपर्राघवीयात॥१६॥ हे संदु र केशो ं वाली देत्रव ! तुम्हारी दो शत्रक्तयां प्रशसर्द् हैं। उनमें प्रथम तो आवरण के लक्षणो ं से युक्त है जो सार्क की बुत्रर्द् का आिादन करके उसके सत्यबोर् में बार्क बन जाती है। दसू री को वेदोत्रक्तयां कुमोह की जननी बताती हैं, शजसे त्रवक्षेप कहते हैं। त्रवक्षेप शत्रक्त सत्य के वास्तत्रवक स्वरूप को प्रकट न करके पापसमूह के द्वारा बली होकर कुि और ही भ्रामक तत्ो ं का बोर् कराती है। भूहम्यपत ाशथवत सदाश्रयसंज्ञकश्च, वृतियेन्दसु कु लाकृत्रतरूपशसर्द्ौ। त्रदन्नागचक्रमनकु ोणदशारचक्रा, संिात्रपतास्त ु गजकोणत्रनवासपवू े॥१७॥ सबो ं को आश्रय देने वाले पृथ्वीतत् से सम्बंशर्त भूपुर चक्र, त्रिवृतक चक्र, इन्दकु लाओ ं की संख्या (चन्द्रमा की अमासत्रहत सोलह कलाएं हैं) वाले रूप को र्ारण करने वाला षोडशार चक्र, त्रदग्गजो ं की संख्या (आठ) वाला अष्टारचक्र, मनओु ं की संख्या (चौदह) वाला (कोणात्मक) चतुदतशार चक्र, इसके बाद दशारचक्र (दश कोणात्मक चक्र दो हैं, बत्रहदतशार एवं अन्तदतशार। सृत्रष्टक्रम के अंतगतत भूपुर से त्रबंद ु की ओर पहले पड़ने वाले चक्र को बत्रहदतशार एवं बाद वाले को अन्तदतशार कहते हैं), ये सभी (आठवें) अष्टकोणचक्र से पहले (श्रीचक्र) में संिात्रपत रहते हैं। यस्थिशिकोणमगत्रतस्थस्तलपशणतरम्य:, संसारचक्रपररवततनतालरु ेश:। यस्थिस्थितस्थस्तत्रमतताशलतलोकबुत्रर्द्स्तं नौत्रम तापनत्रनभं परयिराजम्॥१८॥ शजसमें चन्दन के समान रमणीय, अगम्य त्रिकोणात्मक चक्र है, जो संसारचक्र की त्रनरंतर पररवततनशीलता के शलए महान् जलावतत के समान है, शजसमें लोगो ं की बुत्रर्द् को पाशबर्द् करने की शत्रक्त वाला स्थिर स्वभावयुक्त (त्रबंद)ु तत् भी है, उस सूयत के समान तेजस्वी परदेवता सम्बन्धी यिराज को मैं प्रणाम करता हूँ। शक्रात्रग्नमृत्यपु त्रतखड्गभजु ाम्बत्रु निैराकाशगम्यर्ननायकरुद्रदेव:ै । ब्रह्मात्रहराजपररमस्थण्डतभपू रु ाग्रे, त्ामुस्थज्जहानतरुणीमशभयाचयात्रम॥१९॥ इंद्र, अत्रग्न, यमराज, त्रनऋतत्रत, वरुण, वायु, कुबेर, रुद्र, ब्रह्मा एवं अनन्त के द्वारा शजसके (श्रीचक्र के) भूपुरबाह्य प्रदेश पररमस्थण्डत हैं, शजसकी लावण्यता कभी मशलन नही ंहोती, अत्रपतु सवतदा बढ़ती ही रहती है, ऐसी तुम्हारे प्रत्रत मैं नम्र त्रनवेदन करता हूँ। आद्या महोज्ज्वलत्रनभा ह्यपरा सरु क्ता, चान्त्याशसता शशवशशवाकृत्रतरूपकाख्या:। पञ्चोनसंख्यकप्रवेशयतु ोऽस्थस्त रम्यो, भलू ोकभपू रु रथाङ्गयुत े नमस्त॥े २०॥ तीनो ं रेखाएं अलग अलग वणत की हैं। बाहर से प्रथम रेखा श्वेतवणत की है, और दसू री रेखा संदु र रक्तवणत की है। तीसरी रेखा कृष्णवणत वाली है तथा तीनो ं रेखाएं क्रमशिः परमशशव, माया एवं िूलजगत् का रूपक प्रस्तुत करती हैं। चारो ं ओर से शजसमें प्रवेशद्वार बने हुए हैं, उस पृथ्वीतत् सम्बन्धी मनोहर भूपुरचक्र से युक्त हे देत्रव ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। नानास्वरूपतनलु ाकृत्रतडामराश्च, संहारतक्षणकलार्तृ जम्बहु ासा:। संिात्रपतास्त ु पयसाम्पत्रतद्वारमध्य,े योत्रगन्य एशर्तकुचा इशलकान्तवीया:त ॥२१॥ त्रवशाल आकृत्रत वाली, अनेको ं भयावह रूपो ं को र्ारण करने वाली योत्रगत्रनयां, शजनके स्तन त्रवस्तृत एवं बेडौल हैं, जो गीदड़ के समान गजतना करने वाली, संहार एवं मारकाट में दक्ष हैं तथा शजनके पराक्रम में सम्पूणत भूमण्डल के त्रवनाश की क्षमता है, वे (भूपुर के) पशश्चमवती द्वार पर त्रनयुक्त रहती हैं। नीलाञ्जनाभसमदेहर्रो कराल:, शलू ाशसमानवकपालत्रिनिे युक्त:। षड्बाहुसंयुतप्रशस्थस्तरपासदु क्षो, श्रीक्षिे पो त्रवजयते परुु हतक्षेि॥े २२॥ जो कराल देव नीलवणत के सुरमे के समान आभा वाले शरीर को र्ारण करते हैं, जो शूल, खड्ग, नरमुण्ड आत्रद को र्ारण करते हैं एवं त्रिनेि से युक्त हैं, शजनकी कीत्रतत उनके ििः भुजाओ ं से त्रकये गए त्रहंसात्मक कमों से त्रवस्तार को प्राि कर रही है, वे क्षेिपाल (भूपुर के) पूवतवती द्वार में सुशोशभत हो रहे हैं। पाशाङ्कुशौ पररदर्न्सत्रवशालतुण्ड:, नीलात्रद्रसत्रन्नभकलवे रमावहञ्च। प्रश्चोतकश्च त्रनगमान्तप्रसव्यहेतो:, याम्यां स्थितो स भगवान ् गणनायकाख्य:॥२३॥ हाथो ं में पाश और अङ्कुश र्ारण करके, त्रवशाल संड़ू से युक्त, नीले पवतत के समान देह को र्ारण करते हुए, वेदत्रवरुर्द् आचरण करने वालो ं को नष्ट करने वाले भगवान्, शजनका नाम गणनायक है, वे (भूपुर के) दशक्षणवती द्वार में स्थित हैं। इवारुत तुल्यमशथतास्तमस: पमु ान्स:, त्रडम्भाहवापसनदक्षइनीशसाध्य:। यस्योपमा न च भवदे पु संयमस्य, स भरै वो प्रभसकीत्रतत सदोतरेश:॥२४॥ जो पापी जनो ं के शरीर को ककड़ी की भांत्रत सरलता से त्रवदीणत कर देते हैं, अर्मत के पक्ष से लड़ने वालो ं का संहार करने वाले पराक्रत्रमयो ं के जो इष्टदेव हैं, शजनके प्रलयंकारी कमों की तुलना त्रकसी से नही ंहो सकती, ऐसे प्रचण्ड कीत्रतत वाले श्रीभैरवदेव (भूपुर के) उतरवती द्वार के स्वामी हैं। स्वणोत्रमतकातरशणलस्थज्जतसप्रु भाय, त्रनिःशषे सत्रिषदसंशयत्रनदतयाय। तिै सभु द्रश्रवस े महते नमस्त,े यिाय गाथश्रवस े परदेवताया:॥२५॥ शजनकी स्वशणतम आभा से सूयत भी लस्थज्जत हो जाते हैं, जो सन्तो ं से वैर करने वाले सभी दष्टु ो ं को त्रनिःसंदेह ही कठोर दण्ड देते हैं, शजनकी महान् कीत्रतत सभी ओर व्याि है, उन वरेण्य स्तुत्रतयो ं से स्तुत्य परदेवता के यि को मैं प्रणाम करता हूँ। श्यामाननामशसतवस्त्रसमावतृ ाञ्च, नीलाश्वपिृ गतरक्तमृणालनिे ाम्। नऋै त्यत कोणपररर्ौ पशमु ोहदक्षां, नौमीड्यरूपकुशलाञ्च त्रतरस्करीशाम्॥२६॥ जो श्यामवणत के मुख वाली हैं, नीले वस्त्रो ं को र्ारण करती हैं, नीले रंग के घोड़े पर सवार हैं और रक्तवणत के कमल के समान शजनके नेि हैं, पशुओ ं को मोत्रहत करने में त्रनपुण, प्रशंसनीय रूप को र्ारण करने वाली त्रतरस्करी नाम वाली देवी, जो नैऋतत्यकोण में त्रनवास करती हैं, उन्ें मैं प्रणाम करता हूँ (तंिमागत में भय, घृणा, लज्जा, जुगुप्सा, जात्यशभमान आत्रद अष्टपाशो ं का वणतन है, उनसे आबर्द् जीवसामान्यो ं की पशु संज्ञा है)। श्यामाङ्गखेटकरथाङ्गकृपाणहस्तां, िेराननामतलु रत्नत्रवशचिभषू ाम्। आग्नेयकोणपररमस्थण्डतचन्द्रचडू ां, दगु ामत रण्यभवनां सततं िरात्रम॥२७॥ श्यामवणत के अङ्गो ं से युक्त, हाथो ं में ढाल, चक्र तथा तलवार को र्ारण करने वाली, प्रसन्नमुखी, अतुल्य और त्रवशचि रत्नो ं से बने आभूषणो ं से युक्त, आग्नेयकोण में स्थित रहने वाली, मस्तक पर चन्द्रमा को र्ारण करने वाली वनदगु ात को मैं सदैव िरण करता रहता हूँ। शम्भो: रुषा ज्वशलतदेहर्रो रतीश:, प्रािं ु पररष्कृततनं ु शरणञ्च देव्या:। लब्ध्वा पनु श्च सत्रवलासनशत्रक्तदेहं, ईशानसंस्थितप्रकषतत्रवहारदक्ष:॥२८॥ शशव जी के क्रोर् से भिीभूत हुए देह को पुनिः सुत्रनत्रमतत रूप में प्राि करने के शलए रत्रतपत्रत कामदेव श्रीदेवी के शरण में गए थे और उन्ोनं े पुनिः रमणकाररणी शत्रक्तयो ं से युक्त नवीन देह को प्राि भी त्रकया, ऐसे उत्कृष्ट त्रवहार में दक्ष कामदेव श्रीचक्रराज के ईशानकोण में स्थित रहते हैं। श्रीशारदीयत्रद्वजराजत्रवशशष्टशभ्रु त्रमिावतीयुवत्रतसङ्घत्रनयुर्द्हते मु ्। सौगन्धवषतणमनोज्ञज्वराशभर्ानं, वायव्यसंस्थितवसन्तमनश्रु यात्रम॥२९॥ शजनकी उज्ज्वलता और ऐश्वयत शरत्कालीन चन्द्रमा से भी अशर्क है, जो रमणोत्सुका युवत्रतयो ं के मध्य (प्रणयसम्बर्द्) द्वंद्व का कारण बन जाते हैं, जो सौरशभक वातावरण का त्रनमातण करते हुए कामजन्य ज्वर को बढ़ाते हैं, ऐसे वायव्यकोणस्थित वसन्त की मैं सेवा करता हूँ। शभ्रु ौ महाम्बतु नयौ त्रनशर्संज्ञकौ चापाचीप्रवेशपररबंत्रृ हतकुब्जकेशी। यक्षेशद्वारत्रवभवाशश्रतशसर्द्लक्ष्मी:, श्रीचक्रराजभवन े सकला त्रनयुक्तािः॥३०॥ जो त्रनशर्कुल के सदस्य हैं एवं त्रदव्य जल की संतान हैं (शंख एवं पद्म नामक त्रनशर्यां), श्रीचक्र के पशश्चम त्रदशा की द्वारनात्रयका कुब्जकेशी हैं, तथा यक्षराज कुबेर के द्वार (उतरवती द्वार) की नात्रयका शसर्द्लक्ष्मी हैं, ये सभी श्रीचक्रराज के भवन में (यथावशणतत िानो ं में) त्रनयुक्त हैं। यन्मायया त्रनरयणाशश्रतत्रनष्कर्ता,त त्रनयाचत न े त्रनबशर्ताड़नत्रनभजत ेिु:। भूत्ा प्रत्रतष्कत्रनवदन्यमना तथेट्टे, तामुन्मनीमदु यद्वारगतां नमात्रम॥३१॥ शजसकी माया से मोत्रहत होकर इस संसारचक्र में फंसे हुए बड़े बड़े र्नी भी अवसादग्रस्त होकर इससे िूटने के शलए अपने मस्तक को पीटने लगते हैं, आत्मबल को त्याग कर संघषत का मागत िोड़ देते हैं और अंत में स्तुत्रत करने लगते हैं, उस पूवतद्वार की नात्रयका उन्मनी को मैं प्रणाम करता हूँ। त्रनणीतस्वगद्रत पु दां त्रदत्रव र्ावमानां, सद्भक्तपशू जतपदां बशलदात्रतवाराम्। त्रनहतस्तमृत्यमु पवादनदशक्षणशे ी,ं श्रीकाशलकास्थिशरणं त्रनयतं सदेरे॥३२॥ जो सम्पूणत स्वगतलोक को अपने चरणो ं के नीचे रखती हैं, महाकाश में त्रवचरण करती हैं, शजनके चरण सद्भक्तो ं के द्वारा पूशजत हैं एवं जो भावपूवतक दी गयी बशल को स्नेहयुक्त होकर स्वीकार करती हैं, दबु तल जनो ं की मृत्यु को टालने में समथत, दशक्षणवती द्वार की नात्रयका, उन काशलका के चरणो ं की शरण में मैं अपनी दृढ़ गत्रत को िात्रपत करता हूँ। आद्याशणमा च गररमा लत्रघमा तथैव, शसत्रर्द्प्रदा च मत्रहमा जगत्रत प्रशसर्द्ा। ईशशत्शसत्रर्द्युतभत्रूतवशशत्नामा, प्राकाम्यसवतखशचतस्थे प्सतप्रात्रिकाम्या:॥३३॥ एता समस्तत्रवभवा सकलाथशत सत्रर्द्साहाय्यसत्रन्नशर्यतु ा समहािुशाब्जा:। रेखाङ्कगूढ़त्रनयमा रत्रवभासमानास्थस्तिस्थन्त भत्रु क्तमतयस्तव भपू रु ेऽस्थिन॥् ३४॥ सबसे पहले अशणमा, गररमा और लत्रघमा, सबो ं को शसत्रर्द् देने वाली जगत्प्रशसर्द् मत्रहमा, ईशशत् शसत्रर्द् के साथ वशशत् नाम की शसत्रर्द्, प्राकाम्य, सवतभुत्रक्त, इिा तथा प्रात्रि नाम वाली समस्त शसत्रर्द्यां सवातथतशसत्रर्द् नामक शसत्रर्द् के साथ अपने हाथो ं में पाश एवं कमल र्ारण त्रकये हुए, सूयत के समान वणत वाली होकर सबो ं की इिाओ ं को पूणत करने की इिा से तुम्हारे इस भूपुर की रेखाओ ं में गूढ़भाव से त्रनवास करती हैं। चक्षष्मु ती शचत्रकतुषी त्रवकला जरूथा, व्रार्न्तमा त्रवकसकु ोज्ज्वलरस्थियुक्ता। ब्रह्माण्डजल्गलु त्रप्रया त्रगररमाणवीना, हे चक्षदानत्रनपणु े ! तव नाममाल्यिः॥३५॥ तुम सम्पूणत संसार की सभी गत्रतत्रवशर्यो ं को देखने वाली हो, सभी बातो ं को जानने वाली हो, तुम गुणातीत भाव में लीन रहने वाली, सबो ं को अपनी इिा माि से नष्ट करने वाली, त्रनत्य वृत्रर्द् को प्राि होने वाली, त्रवशेषरूप से प्रकाशमान् रहने वाली त्रवराट् ऊजात की रस्थियो ं से युक्त हो। आप सम्पूणत ब्रह्माण्ड शजनका घर है, ऐसे सवतव्यापी ब्रह्म की त्रप्रया और पवततराज की बाशलका के समान हैं (वैसे तो जगज्जननी हैं त्रकंतु लीलापूवतक त्रहमालयपुिी पावतती के रूप में अवतार शलया)। हे शासन करने में समथत देत्रव ! उपयुतक्त सभी शब्द आपकी नाममाला के अंश हैं। सञ्चक्षथीरर्पराक्रमव्रातसाहे, रक्षास्थियेध्यवरदा तत्रु वमन्युर्ीरा। त्रवश्वस्थन्मवा प्रणतकष्टत्रवखादत्रनिा, त्ां त्रवश्ववारगत्रृ हणीमत्रनशं भजात्रम॥३६॥ हे शासको ं के भी शासको ं के पराक्रमतुल्य समूहो ं को नष्ट करने में समथत देत्रव ! हमारी रक्षा करो। तुम यज्ञो ं के माध्यम से तुम्हारा यजन करने वाले जनो ं को अभीष्ट वरदान देती हो। तुम अत्यन्त क्रोर् एवं ज्ञान से पररपूणत हो। तुम ही सारे जगत् को चलाने वाली गत्रतशील शत्रक्त एवं अपने शरणागतो ं के कष्ट को शिन्न शभन्न करने के स्वभाव वाली हो, जो संसार की अनेको ं प्रकार से रचना करने वाले परमेश्वर की अर्द्ातत्रङ्गनी हैं, ऐसी तुम्हारी मैं त्रनरंतर सेवा करता हूँ। पज्रान ् सपु ञ्चशक्षत्रतजानभु ये रशभिा, रम्जाशस दमु तदजनानशचतानचक्रान।् र्मतक्षयंकरत्रनकारणहेतमु ुख्या, मक्षङ्गु मा वसशुर्ती रशनायमाना॥३७॥ हे देत्रव ! अपने र्न को भोग प्रर्ान पापो ं या त्रवलासो ं में लगाने वाले त्रवलासी जनो ं को, चाहे वो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा त्रनषाद ही क्यो ं न हो, उसे र्मत और अर्मत के भ्रम में उलझा कर रखती हो, साथ ही मोहबुत्रर्द् वाले अकमतण्यता से ग्रस्त अहंकारी जनो ं के ऊपर त्रनयंिण रखती हो। जो र्मत की हात्रन करते हैं, उन्ें तुम बारम्बार नारकीय योत्रनयो ं में भ्रमण कराती हो, अत्यन्त वेग से संचरण करने वाली हो, आकाश एवं पृथ्वी के रूप में पदाथों को र्ारण करती हो एवं तुम्हारी परम्परा, तुम्हारा शासन अनात्रद एवं प्राचीनतम है। त्रवभ्रान्तत्रवम्बटत्रवयातव्यवायसणू ा:त , आजौ त्रवमातृफशणतल्पगचक्रभक्तु ािः। पश्चादपीशहृदयेश्वरर त्रवप्रलाप,े सिोत्रहतास्तव त्रवमानवराटबर्द्ा:॥३८॥ अत्यन्त भ्रम के कारण, राई के समान लघु कलेवर एवं लघु पराक्रम को प्राि, त्रफर भी र्ूततता को न त्यागने वाले लोग, शजनके शरीर क्षत त्रवक्षत होकर युर्द्भूत्रम में अपनी सौतेली माता से उत्पन्न सपत पर सोने वाले (अथवा सपत पर सोने वाले, अपने सौतेले भाई) के चक्र के आहार बन जाते हैं, अथातत् मारे जाते हैं। उसके बाद भी उनकी बुत्रर्द् त्रनमतल नही ंहोती, क्योत्रंक हे शशव जी के हृदय की स्वात्रमनी ! तुम्हारे अपमान के कारण उत्पन्न मोहपाश में बंर्े उन (असुरो)ं का मन सदैव सिोत्रहत होकर आपसी झगड़ो ं में ही लगा रहता है। (कश्यप जी की त्रदत्रत नाम वाली पत्नी से दैत्यो ं की उत्पत्रत हुई है, कद्र ू नाम की पत्नी से शेषनाग की एवं वामनावतार के समान भगवान् त्रवष्णु ने अत्रदत्रत नाम की पत्नी से अवतार शलया, अतएव भगवान् अनंत एवं श्रीहरर, दोनो ं ही दैत्यो ं के सौतेले भाई के समान हैं) त्त्प्रमे जन्यत्रमत्रहराणकराग्रलीलासंक्षोभकारणपयोर्रवकतराटम्। दृष्ट्वान्तकात्रग्नदहनोत्सकु र्ावमाना, मात्रहष्यशम्भु वृकदगु मत भण्डसंज्ञा:॥३९॥ तुम्हारे प्रेम के कारण मशथत शचत वाले शशव जी के हाथो ं की लीला से जन्य स्तनो ं में आलोत्रकत नखक्षत को देखकर साक्षात् कालरूपी अत्रग्न में भि हो जाने की इिा शलए हुए मत्रहषासुर, शुम्भ, भिासुर, दगु तम और भण्डासुर जैसे अनेकानेक दैत्य कूद पड़े। काकिदेक्षणत्रवदग्धत्रवदग्धकाम:, िृत्ा त्रहरण्यकशशपत्रू मतर्रां त्दीयाम्। तेपऽे शसतांचलत्रगरौ भवदीयकामो, जान े न कामदहनने त्रवशशष्टलाभम॥् ४०॥ आपको स्वणातभा से युक्त कलेवर और वस्त्रो ं में देखकर तथा आपके खंजन पक्षी के समान नेिो ं से सञ्चाशलत प्रेमपूणत कटाक्ष से कामदेव का दहन करने वाले शशव जी स्वयं ही कामदग्ध हो गए। इस प्रकार बार बार आपका शचंतन करके उन्ोनं े आपको प्राि करने की कामना से नीलांचल पवतत में तपस्या की। अतएव कामदेव को दग्ध करके उन्ें कौन से त्रवशशष्ट लाभ की प्रात्रि हुई, यह मैं नही ंजान पाता। (यह िान कामाख्या पीठ में कामेश्वर महादेव की गुफा के नाम से प्रशसर्द् है तथा इस घटना का वणतन काशलका उपपुराण एवं महाभागवताख्य देवी उपपुराण में त्रमलता है) श्यने ीपती भवु नशरे भशव्ये शवे ा, शस्थु ष्मन्तमा शतदरु ा खल ु शरू पत्नी। श्रुष्टीवरी शशशमु ती शशशमु ाररूपा, रक्षोहणा भवतु लोमशवक्षणशे ा॥४१॥ हे देत्रव ! तुम त्रवत्रवर् वणों की स्वात्रमनी प्रकृत्रत हो, तुम संसार को नष्ट करने वाले परमेश्वर की कल्याणमयी त्रप्रया हो, तुम्हारा ताप और तेज समस्त जनो ं से अशर्क है, तुम ही सैकड़ो ं आवरणो ं वाली शत्रक्त हो और त्रनशश्चत ही तमु शूरवीर पुरुषो ं का पालन करने वाली हो। तुम अपने भक्तो ं के शलए सुखदात्रयनी हो, संसाररूपी सन्तान की माता और र्मोल्लंघन करने वाले शिुओ ं को मारने वाली हो (अथवा सभी नक्षि एवं ग्रहो ं में व्याि हो), पाश्वतभाग में संदु र क्षद्रु रोमावली से युक्त नात्रयकाओ ं की स्वात्रमनी, हे देत्रव ! तुम हमारे शलए रक्षा करने वाली बनो। वांिामनोज्ञशलबुजा भत्रु व मेनकाख्या, शस्थग्ध युर्ानत्रवजये यतु के तथैव। वोचे द्यभु क्तदत्रयते ! तव पाशबर्द्:, नामात्रन श्रीररत्रत महीत्रत तथेश्वरीत्रत॥४२॥ मन में उत्पन्न समस्त इिाओ ं को पूरा करने के शलए तुम कल्पवल्ली के समान हो, संसार में मेनका, इस नाम से तुम्हारी प्रशसत्रर्द् है (शजसकी बात सभी मानें, उस त्रवद्वानो ं की सभाशत्रक्त को मेनका कहते हैं), तुम वीरो ं के मध्य युर्द् एवं सस्थन्ध कराने में समथत हो। अनन्तकाल तक उपभोग त्रकये जाने वाले त्रदव्य ऐश्वयत से युक्त हे देत्रव ! तुम्हारे मायापाश में बर्द् हुआ मैं, तुम्हारे श्री, महा, ईश्वरी आत्रद संज्ञाओ ं से युक्त नामो ं का उच्चारण करता हूँ।

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