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2020 Or Before -Aaryo Deshya Ratnamala PDF

2020·0.12 MB·Hindi
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ओ३म ् आ(cid:205)य(cid:333)(cid:293)(cid:212)े यर(cid:194)नमाला (महिष(cid:170) दयान(cid:198)द सर(cid:214)वती (cid:300)ारा रिचत लघ(cid:250)ु ंथ) (cid:174)ीम(cid:293)यान(cid:198)दसर(cid:214)वती(cid:214)वािमिनिमत(cid:170) ा ई(cid:309)रािदत(cid:223)वल(cid:177)ण(cid:255)कािशका आ(cid:205)य(cid:170)भाषा(cid:255)काशो(cid:186)जवला िनवेदन “महिष(cid:170) दयानंद सर(cid:214)वती जी के कृ पा-(cid:250)ंथ िकसी एक क(cid:236) बपौती नह(cid:233) ह,(cid:167) उन पर मानव मा(cid:253) का अिधकार ह,ै कृ पया इसे के वल (cid:214)वयं तक सीिमत न रख,(cid:164) पढ़(cid:164) और (cid:255)चार कर(cid:164)। इसी उ(cid:293)े(cid:212)य से यह पीडीएफ प(cid:214)ु तक िनिम(cid:170)त क(cid:236) गयी है, िजससे (cid:255)चार म े सरलता रह।े कृपया िकसी भी (cid:255)कार के िदशा-िनदश(cid:165) , (cid:253)िु ट संशोधन आिद के िलए हम(cid:164) सिू चत कर सहयोग कर(cid:164)” भिवत(cid:211)य आय(cid:170) “मनगु ामी” mailto:BhavitavyaArya@gmail.com http://vaidikdharma.wordpress.com १ ई(cid:309)र िजसके गुण, कम,(cid:170) (cid:214)वभाव और (cid:214)व(cid:322)प स(cid:194)य ही ह,(cid:167) जो केवल चेतनमा(cid:253) व(cid:214)त ुहै तथा जो एक अि(cid:300)तीय, सव(cid:170)शि(cid:265)मान,् िनराकार, सव(cid:170)(cid:253) (cid:211)यापक, अनािद और अन(cid:198)त आिद स(cid:194)यगणु वाला है, और िजसका (cid:214)वभाव अिवनाशी, (cid:178)ानी, आन(cid:198)दी, शु(cid:294), (cid:198)यायकारी, दयाल ुऔर अज(cid:198)मािद है, िजसका कम (cid:170)जगत ्क(cid:236) उ(cid:194)पि(cid:176), पालन और िवनाश करना तथा सव(cid:170) जीव(cid:332) को पाप-पु(cid:193)य के फल ठीक-ठाक पह(cid:242)चँ ाना ह,ै उसको 'ई(cid:309)र' कहते ह(cid:167) । २ ध(cid:204)म(cid:170) िजसका (cid:214)व(cid:322)प ई(cid:309)र क(cid:236) आ(cid:178)ा का यथावत् पालन, प(cid:177)पातरिहत (cid:198)याय सव(cid:170)िहत करना ह,ै जो िक (cid:255)(cid:194)य(cid:177)ािद (cid:255)माण(cid:332) से सपु रीि(cid:177)त और वेदो(cid:265) होने से सब मनु(cid:213)य(cid:332) के िलए एक और मानने यो(cid:181)य ह,ै उसको 'ध(cid:204)म'(cid:170) कहते ह (cid:167)। ३ अध(cid:204)म(cid:170) िजसका (cid:214)व(cid:322)प ई(cid:309)र क(cid:236) आ(cid:178)ा को छोड़ना और प(cid:177)पात सिहत अ(cid:198)यायी होके िबना परी(cid:177)ा करके अपना ही िहत करना ह,ै जो अिव(cid:299)ा-हठ अिभमान, (cid:248)ूरतािद दोषयु(cid:265) होने के कारण वेदिव(cid:299)ा से िव(cid:321)(cid:294) है और सब मनु(cid:213)य(cid:332) को छोड़ने के यो(cid:181)य ह,ै यह 'अध(cid:204)म'(cid:170) कहाता ह ै। ४ प(cid:193)ु य िजसका (cid:214)व(cid:322)प िव(cid:299)ािद शुभ गणु (cid:332) का दान और स(cid:194)यभाषणािद स(cid:194)याचार करना ह,ै उसको 'प(cid:193)ु य' कहते ह(cid:167) । ५ पाप जो पु(cid:193)य से उ(cid:208)टा और िम(cid:195)याभाषणािद करना ह,ै उसको 'पाप' कहते ह(cid:167) । ६ स(cid:194)यभाषण जसै ा कुछ अपन ेआ(cid:194)मा म(cid:164) हो और अस(cid:204)भवािद दोष(cid:332) से रिहत करके सदा वैसा ही स(cid:194)य बोल,े उसको 'स(cid:194)यभाषण' कहते ह (cid:167)। ७ िम(cid:195)याभाषण जो िक स(cid:194)यभाषण अथा(cid:170)त ्स(cid:194)य बोलने से िव(cid:321)(cid:294) ह,ै उसको 'अस(cid:194)यभाषण' कहते ह(cid:167) । ८ िव(cid:309)ास िजसका मूल अथ(cid:170) और फल िन(cid:306)य करके स(cid:194)य ही हो, उसका नाम 'िव(cid:309)ास' है । ९ अिव(cid:309)ास जो िव(cid:309)ास से उ(cid:208)टा ह,ै िजसका त(cid:223)व अथ(cid:170) न हो, वह 'अिव(cid:309)ास' कहाता ह ै। १० परलोक िजसम(cid:164) स(cid:194)यिव(cid:299)ा से परमे(cid:309)र क(cid:236) (cid:255)ाि(cid:302) पूव(cid:170)क इस ज(cid:198)म वा पुनज(cid:198)(cid:170) म और मो(cid:177) म (cid:164)परमसुख (cid:255)ा(cid:302)ं होना ह, ैउसको 'परलोक' कहते ह (cid:167)। ११ अपरलोक जो परलोक से उ(cid:208)टा ह,ै िजसम(cid:164) दःुख िवशषे भोगना होता है, वह 'अपरलोक' कहाता है । १२ ज(cid:198)म िजसम(cid:164) िकसी शरीर के साथ संयु(cid:265) हो के जीव कम(cid:170) करने म (cid:164)समथ(cid:170) होता ह,ै उसको 'ज(cid:198)म' कहते ह (cid:167)। १३ मरण िजस शरीर को (cid:255)ा(cid:302)र होकर जीव ि(cid:248)या करता ह,ै उस शरीर और जीव का िकसी काल म(cid:164) जो िवयोग हो जाना ह,ै उसको 'मरण' कहते ह(cid:167) । १४ (cid:214)वग (cid:170) जो िवशेष सुख और सुख क(cid:236) साम(cid:250)ी को जीव का (cid:255)ा(cid:302)ै होना ह,ै वह '(cid:214)वग'(cid:170) कहाता है । १५ नरक जो िवशेष दःुख और दुःख क(cid:236) साम(cid:250)ी को जीव का (cid:255)ा(cid:302)ा होना ह,ै उसको 'नरक' कहते ह(cid:167) । १६ िव(cid:299)ा िजससे ई(cid:309)र से लके े पिृथवीपय(cid:198)(cid:170) त पदाथ(cid:334) का स(cid:194)य िव(cid:178)ान होकर उनसे यथायो(cid:181)य उपकार लने ा होता ह,ै इसका नाम 'िव(cid:299)ा' ह ै। १७ अिव(cid:299)ा जो िव(cid:299)ा से िवपरीत, (cid:258)म, अ(cid:198)धकार और अ(cid:178)ान(cid:322)प है इसिलए इसको 'अिव(cid:299)ा' कहते ह(cid:167) । १८ स(cid:194)प(cid:321)ु ष जो स(cid:194)यि(cid:255)य, धमा(cid:170)(cid:194)मा, िव(cid:300)ान, सबके िहतकारी और महाशय होत ेह,(cid:167) वे 'स(cid:194)पु(cid:321)ष' कहात ेह (cid:167)। १९ स(cid:194)संग-कुसंग िजस करके झूठ से छूट के स(cid:194)य क(cid:236) ही (cid:255)ाि(cid:302) होती ह ैउसको 'स(cid:194)संग' और िजस करके पाप(cid:332) म(cid:164) जीव फँसे उसको 'कुसंग' कहते ह(cid:167) । २० तीथ(cid:170) िजतने िव(cid:299)ा(cid:203)यास, सुिवचार, ई(cid:309)ोरोपासना, धमा(cid:170)नु(cid:311)ान, स(cid:194)य का संग, (cid:257)(cid:314)चय,(cid:170) िजतिे(cid:198)(cid:254)यतािद उ(cid:176)म कम(cid:170) ह,(cid:167) वे सब 'तीथ(cid:170)' कहात ेह (cid:167)(cid:179)य(cid:332)िक िजन करके जीव दःुखसागर से तर जा सकता ह ै। २१ (cid:214)तिुत जो ईि(cid:309)र वा िकसी दसू रे पदाथ(cid:170) के गुण(cid:178)ान, कथन, (cid:174)वण और स(cid:194)यभाषण करना ह,ै वह '(cid:214)तुित' कहाती ह ै। २२ (cid:214)तिुत का फल जो गणु (cid:178)ान आिद के करने स ेगुणवाल ेपदाथ(cid:170) म(cid:164) (cid:255)ीित होती ह,ै यह '(cid:214)तुित का फल' कहाता ह ै। २३ िन(cid:198)दा जो िम(cid:195)या(cid:178)ान, िम(cid:195)याभाषण, झठू म(cid:164) आ(cid:250)हािद ि(cid:248)या का नाम ह ैिक िजससे गणु छोड़कर उनके (cid:214)थान म(cid:164) अपगुण लगाना होता ह,ै वह 'िन(cid:198)दा' कहाती ह ै। २४ (cid:255)ाथ(cid:170)ना अपने पूण(cid:170) प(cid:321)ु षाथ(cid:170) के उपरा(cid:198)त उ(cid:176)म कम(cid:334) क(cid:236) िसि(cid:294) के िलय ेपरमे(cid:212)(cid:260) वा िकसी साम(cid:195)य(cid:170) वाल ेमनु(cid:213)य के सहाय लने े को '(cid:255)ाथ(cid:170)ना' कहते ह(cid:167) । २५ (cid:255)ाथ(cid:170)ना का फल अिभमान का नाश, आ(cid:194)मा म(cid:164) आ(cid:254)(cid:170)ता, गणु (cid:250)हण म(cid:164) पु(cid:321)षाथ(cid:170) और अ(cid:194)य(cid:198)त (cid:255)ीित का होना '(cid:255)ाथ(cid:170)ना का फल' ह ै। २६ उपासना िजस करके ई(cid:309)र ही के आन(cid:198)द(cid:214)व(cid:322)प म(cid:164) अपने आ(cid:194)मा को म(cid:181)न करना होता ह,ै उसको 'उपासना' कहते ह(cid:167) । २७ िनग(cid:170)णु ोपासना श(cid:202)द, (cid:214)पश,(cid:170) (cid:322)प, रस, ग(cid:198)ध, संयोग, िवयोग, ह(cid:208)का, भारी, अिव(cid:299)ा, ज(cid:198)म, मरण और दुःख आिद गणु (cid:332) से रिहत परमा(cid:194)मा को जानकर जो उसक(cid:236) उपासना करनी ह,ै उसको 'िनगुण(cid:170) ोपासना' कहते ह(cid:167) । २८ सगणु ोपासना िजसको सव(cid:170)(cid:178), सव(cid:170)शि(cid:265)मान,् शु(cid:294), िन(cid:194)य, आन(cid:198)द, सव(cid:170)(cid:211)यापक, एक, सनातन, सवक(cid:170) (cid:176)ा,(cid:170) सवा(cid:170)धार, सव(cid:214)(cid:170) वामी, सव(cid:170)िनय(cid:198)ता, सवा(cid:170)(cid:198)तया(cid:170)मी, मगं लमय, सवा(cid:170)न(cid:198)द(cid:255)द, सव(cid:170)िपता, सब जगत् का रचने वाला, (cid:198)यायकारी, दयाल ुआिद स(cid:194)य गणु (cid:332) से य(cid:265)ु जान के जो ई(cid:309)र क(cid:236) उपासना करना ह,ै सो 'सगणु ोपासना' कहाती ह ै। २९ मिु(cid:265) अथात(cid:170) ् िजससे सब बरुे काम(cid:332) और ज(cid:198)म-मरणािद दुःखसागर से छूटकर, सुख(cid:322)प परमे(cid:309)र को (cid:255)ा(cid:302) हो के सुख ही म(cid:164) रहना ह,ै वह 'मुि(cid:265)' कहाती ह ै। ३० मिु(cid:265) के साधन अथात(cid:170) ् जो पूव(cid:333)(cid:265) ई(cid:309)र क(cid:236) कृपा, (cid:214)तुित, (cid:255)ाथ(cid:170)ना और उपासना का करना तथा धम(cid:170) का आचरण और पु(cid:193)य का करना, स(cid:194)संग, िव(cid:309)ास, तीथ(cid:170)सेवन, स(cid:194)पु(cid:321)ष(cid:332) का संग, परोपकार करना आिद सब अ(cid:184)छे काम(cid:332) का करना और सब दु(cid:310) कम(cid:334) से अलग रहना ह,ै य ेसब 'मुि(cid:265) के साधन' कहात ेह (cid:167)। ३१ क(cid:176)ा (cid:170) जो (cid:214)वत(cid:198)(cid:253)ता से कम(cid:334) का करन ेवाला ह,ै अथा(cid:170)त् िजसके (cid:214)वाधीन सब साधन होते ह,(cid:167) वह 'क(cid:176)ा'(cid:170) कहाता ह ै। ३२ कारण िजसको (cid:250)हण करके करने वाला ही िकसी काय (cid:170)व चीज को बना सकता ह ैअथात(cid:170) ् िजसके िवना कोई चीज बन ही नह(cid:233) सकती, वह 'कारण' कहाता ह,ै सो तीन (cid:255)कार का ह ै। ३३ उपादान कारण िजसको (cid:250)हण करके ही उ(cid:194)प(cid:198)न होवे वा कुछ बनाया जाय, जसै ा िक म(cid:280)ी से घड़ा बनता ह,ै उसको 'उपादान' कहते ह (cid:167)। ३४ िनिम(cid:176) कारण जो बनाने वाला ह,ै जसै ा कु(cid:204)हार घड़े को बनाता ह,ै इस (cid:255)कार के पदाथ(cid:334) को 'िनिम(cid:176) कारण' कहते ह(cid:167) । ३५ साधारण कारण जसै े िक चाक, दडं आिद और िदशा, आकाश तथा (cid:255)काश ह,(cid:167) इनको 'साधारण कारण' कहते ह (cid:167)। ३६ का(cid:205)य(cid:170) जो िकसी पदाथ(cid:170) के संयोगिवशषे से (cid:214)थूल होके काम म(cid:164) आता ह,ै अथा(cid:170)त ्जो करने के यो(cid:181)य है, वह उस कारण का 'का(cid:205)य'(cid:170) कहाता ह ै। ३७ सिृ(cid:310) जो क(cid:176)ा(cid:170) क(cid:236) रचना से कारण(cid:254)(cid:211)य िकसी संयोगिवशेष से अनेक (cid:255)कार काय(cid:322)(cid:170) प होकर व(cid:176)म(cid:170) ान म(cid:164) (cid:211)यवहार करने के यो(cid:181)य होता ह,ै वह 'सिृ(cid:310)' कहाती ह ै। ३८ जाित जो ज(cid:198)म से लेकर मरणपय(cid:198)(cid:170) त बनी रह,े जो अनेक (cid:211)यि(cid:265)य(cid:332) म(cid:164) एक(cid:322)प से (cid:255)ा(cid:302)त हो, जो ई(cid:309)रकृत अथात(cid:170) ्मनु(cid:213)य, गाय, अ(cid:309)ज और व(cid:177)ृ ािद समूह ह,(cid:167) वे 'जाित' श(cid:202)दाथ(cid:170) से िलय ेजाते ह(cid:167) । ३९ मन(cid:213)ु य अथात(cid:170) ् जो िवचार के िवना िकसी काम को न कर,े उसका नाम 'मनु(cid:213)य' ह ै। ४० आ(cid:205)य(cid:170) जो (cid:174)े(cid:311) (cid:214)वभाव, धमा(cid:170)(cid:194)मा, परोपकारी, स(cid:194)यिव(cid:299)ािद गुणय(cid:265)ु और आ(cid:205)याव(cid:170) (cid:176)(cid:170) देश म(cid:164) सब िदन से रहने वाल ेह,(cid:167) उनको 'आ(cid:205)य'(cid:170) कहते ह(cid:167) । ४१ आ(cid:205)याव(cid:170) (cid:176)(cid:170) देश िहमालय, िव(cid:198)(cid:197)याचल, िस(cid:198)धु नदी और (cid:257)(cid:314)पु(cid:253)ा नदी, इन चार(cid:332) के बीच और जहां तक उनका िव(cid:214)तार ह,ै उनके म(cid:197)य म(cid:164) जो दशे ह,ै उसका नाम 'आ(cid:205)या(cid:170)व(cid:176)'(cid:170) ह ै। ४२ द(cid:214)यु अनाय (cid:170)अथात(cid:170) ्जो अनाड़ी, आ(cid:205)य(cid:334) के (cid:214)वभाव और िनवास से पथृ क् डाकू, चोर, िहसं क िक जो द(cid:310)ु मनु(cid:213)य ह,ै वह 'द(cid:214)य'ु कहाता ह ै। ४३ वण(cid:170) जो गणु और कम(cid:334) के योग से (cid:250)हण िकया जाता है, वह 'वण'(cid:170) श(cid:202)दाथ(cid:170) से िलया जाता ह ै। ४४ वण(cid:170) के भेद जो (cid:257)ा(cid:314)ण, (cid:177)ि(cid:253)य, वै(cid:212)य और श(cid:254)ू ािद ह (cid:167)वे 'वण(cid:170)' कहात ेह (cid:167)। ४५ आ(cid:174)म िजनम(cid:164) अ(cid:194)य(cid:198)त प(cid:229)र(cid:174)म करके उ(cid:176)म गणु (cid:332) का (cid:250)हण और (cid:174)(cid:311)े काम िकये जाय,(cid:164) उनको 'आ(cid:174)म' कहते ह (cid:167)। ४६ आ(cid:174)म के भेद जो सि(cid:300)(cid:299)ािद शुभ गुण(cid:332) का (cid:250)हण तथा िजतेि(cid:198)(cid:254)यता से आ(cid:194)मा और शरीर के बल को बढ़ाने के िलए (cid:257)(cid:314)चारी, जो स(cid:198)तानो(cid:194)पि(cid:176) और िव(cid:299)ािद सब (cid:211)यवहार(cid:332) को िस(cid:294) करने के िलए गहृ ा(cid:174)म, जो िवचार के िलए वान(cid:255)(cid:214)थ, और जो सव(cid:333)पकार करने के िलए सं(cid:198)यासा(cid:174)म होता ह,ै य े'चार आ(cid:174)म' कहात ेह (cid:167)। ४७ य(cid:178) जो अि(cid:181)नहो(cid:253) से ल ेके अ(cid:309)ामेध पय(cid:198)(cid:170) त जो िश(cid:208)प (cid:211)यवहार और पदाथ-(cid:170) िव(cid:178)ान ह ैजो िक जगत ्के उपकार के िलए िकया जाता ह,ै उसको 'य(cid:178)' कहते ह(cid:167) । ४८ कम(cid:170) जो मन इि(cid:198)(cid:254)य और शरीर म(cid:164) जीव चे(cid:310)ा-िवशेष करता ह ैसो 'कम'(cid:170) कहाता ह ै। वह शुभ, अशुभ और िम(cid:174) भदे स े तीन (cid:255)कार का है । ४९ ि(cid:248)यमाण जो वत(cid:170)मान म(cid:164) िकया जाता ह,ै सो 'ि(cid:248)यमाण कम'(cid:170) कहाता ह ै। ५० सि(cid:188)चत जो ि(cid:248)यमाण का सं(cid:214)कार (cid:178)ान म(cid:164) जमा होता ह,ै उसको 'सि(cid:188)चत' कहते ह (cid:167)। ५१ (cid:255)ार(cid:202)ध जो पूव(cid:170) िकय ेह(cid:242)य ेकम(cid:334) के सुख-दःुख-(cid:322)प फल का भोग िकया जाता ह,ै उसको '(cid:255)ार(cid:202)ध' कहते ह(cid:167) । ५२ अनािद पदाथ(cid:170) जो ई(cid:309)र, जीव और सब जगत ्का कारण है, य ेतीन '(cid:214)व(cid:322)प से अनािद' ह(cid:167) ।

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